संज्ञान, संज्ञानात्मक विकास, परिभाषा, जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास
संज्ञान
मनोवैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार संज्ञान वह मानसिक क्रिया है जिसके द्वारा ज्ञानार्जन होता है संज्ञान शब्द का प्रयोग अक्सर अधिगम और चिंतन की व्याख्या करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है संज्ञान को अंग्रेजी में कॉग्निशन (cognition) कहते हैं कॉग्निशन शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के कॉग्नोसियर (cognoscere) शब्द से हुई है जिसका अर्थ ‛जानना या ज्ञान’ है यह शब्द 15 वी शताब्दी में ही प्रयोग में आने लगा था परंतु संज्ञानात्मक प्रक्रिया पर सबसे अधिक ध्यान तब गया जब महान दार्शनिक अरस्तु ने संज्ञानात्मक क्षेत्रों पर ध्यान देना शुरू किया
संज्ञान की परिभाषाएं
नीसर के अनुसार, “संज्ञान शब्द की उत्पत्ति सभी प्रक्रियाओं का संदर्भ देता है जिनके द्वारा इंद्रिय क्रियाएं रूपांतरित, मात्रा में कम, व्याख्यायित, एकत्रित, खोई शक्ति को अर्जित तथा प्रयुक्त होती हैं”
वेबस्टर शब्दकोश के अनुसार― जानकारी ज्ञान और प्रत्यक्षीकरण की क्रिया संज्ञा है
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार― विचार अनुभव और इंद्रियों के माध्यम से ज्ञान अर्जित करने और अवबोध की मानसिक क्रियाएं ही संज्ञान हैं
संज्ञानात्मक विकास
संज्ञानात्मक विकास अध्यापकों के लिए अति महत्वपूर्ण क्षेत्र है अधिगम और संज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं अधिगम को ज्ञान व कौशल के अर्जन की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है इस ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में संज्ञान निहित है संज्ञानात्मक विकास का पहला संबंध उन तरीकों से होता है जिनसे बालक की आंतरिक, मानसिक शक्तियां अर्जित, विकसित और अवसर के अनुसार प्रयुक्त होती हैं जैसे समस्या समाधान स्मृति और भाषा शैशवावस्था में सीखने याद करने और सूचनाओं को प्रतीक के रूप में प्रयोग करने की क्षमता बहुत सामान्य स्तर पर होती है वे छोटे संज्ञानात्मक कार्य करने में सफल होते हैं बालक का संज्ञानात्मक विकास जन्म से ही आरंभ हो जाता है उसे अपनी शारीरिक आवश्यकताओं एवं जरूरतों का संज्ञान होने लगता है बाल्यावस्था में संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया तेज होती है और किशोरावस्था आते-आते बालक का संज्ञानात्मक विकास पूर्ण हो जाता है संज्ञानात्मक विकास पर वंशानुक्रम, वातावरण, व्यवसाय, स्वास्थ्य, यौन भेद आदि का प्रभाव पड़ता है
जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत
जीन पियाजे का जन्म 1896 ( मृत्यु 1980 ) में स्विट्जरलैंड में हुआ था जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का एक नवीन सिद्धांत प्रस्तुत किया उनके अनुसार संज्ञानात्मक विकास की अवधारणा आयु न होकर बालक द्वारा चाही गई अनुक्रिया से दूसरी अनुक्रिया तक पहुंचने की निश्चित प्रगति है जीन पियाजे ने बालक के संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या करने के लिए संज्ञानात्मक विकास को चार प्रमुख अवस्थाओं में विभक्त किया है प्रत्येक अवस्था संज्ञानात्मक संरचनाओं में तालमेल बैठाने के बालक के प्रयासों के एक भिन्न रूप को अभिव्यक्त करती है प्रत्येक अवस्था एक विशेष समय अवधि में प्रयुक्त होती है तथा प्रत्येक अवस्था अपनी पूर्व अवस्थाओं से अधिक उपयुक्त होती है पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाएं बताएं बताई हैं
- संवेदी पेशीय अवस्था
- पूर्व संक्रियात्मक अवस्था
- मूर्त संक्रियात्मक अवस्था
- औपचारिक संक्रिया की अवस्था
1. संवेदी पेशीय अवस्था― यह अवस्था जन्म से लेकर 2 वर्ष तक मानी जाती है इस अवधि में शिशु में जन्मजात संवेदी पेशीय क्षमताओं का विकास होता है उसमें अनुकरण करने का व्यवहार प्रारंभ हो जाता है इस अवधि में बड़ो के प्रति उचित व्यवहार दिखाई देता है प्रत्यक्षीकरण के आधार पर दूरी, ऊंचाई, समय और दिन का भी ज्ञान होने लगता है इस अवस्था में बच्चे जगत से अपना अलग विभेदन कर सकते हैं और कार्य प्रभाव को समझने में सक्षम हो जाता है जन्म के पश्चात शिशु में केवल सहज क्रिया ही पाई जाती हैं उदाहरण के लिए आंखें बंद कर लेना और स्तन मुंह में डालने पर चूसने की क्रिया करना जीन पियाजे ने इसे नैसर्गिक आकृति कल्प (Innate Scheme) कहा है इस जगत के विषय में ज्ञान अर्जन के लिए बच्चा जिन सहज क्रियाओं से सहायता लेता है और ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से अनुक्रियायें करने में सक्षम होता है जन्म के पश्चात आयु में वृद्धि के साथ ही वह अपनी आवश्यकता के अनुसार व्यवहार को प्रदर्शित करता है
2. पूर्व संक्रियात्मक अवधि― यह अवधि 2 से 7 वर्ष तक चलती है इससे पूर्व बाल्यावस्था कहा जाता है इस अवधि को दो उपाधियों में बांटा जा सकता है
पूर्व सम्प्रत्यायिक
आत्मज्ञान अवधि
पूर्व सम्प्रत्यायिक― यह अवधि 2 से 4 वर्ष तक होती है इस अवस्था में बच्चों में भाषा का विकास हो चुका होता है और बच्चे बोलना, खेलना, हावभाव, मानसिक प्रतिमाओं आदि के विषय में ज्ञान प्राप्त करते हैं इस अवस्था में वस्तुओं में पाए जाने वाली पारंपरिक संबंधों की योग्यता में भी विकास होता है फर्थ ने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि इस अवधि में बच्चों में तार्किक क्षमता का विकास होता है और बहरे बच्चे भी समस्या का समाधान में तार्किक क्षमता के फलस्वरूप सक्षम हो जाते हैं इस अवधि में मूल तादात्म्य प्रत्यय और प्रतिनिध्यात्मक विचार का विकास पाया जाता है मूल तादात्म्य प्रत्यय के परिणाम स्वरूप बच्चे वस्तु की भौतिक विशेषता के संबंध में परिवर्तनीय गुणों को सीख लेते हैं जबकि प्रतिनिध्यात्मक विचार के माध्यम से भौतिक रूप में किसी वस्तु के सामने ना होने पर उसमें मानसिक प्रतीक की रचना कर ले करना सीख जाते हैं
आत्मज्ञान अवधि― यह 4 से 7 वर्ष तक होती हैं इस अवधि में बालक का चिंतन तार्किक शक्ति पहले से अधिक परिपक्व हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप वह साधारण मानसिक क्रियाएं जो जोड़, घटाव, गुणा तथा भाग आदि में सम्मिलित होती हैं उन्हें वह कर पाता है परंतु इन मानसिक प्रक्रियाओं के पीछे छुपे नियमों को वह नहीं समझ पाता अंतर दर्शी चिंतन एक ऐसा चिंतन है जिसमें कोई क्रमबद्ध तर्क नहीं होता।
3. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था― यह अवस्था 7 वर्ष से प्रारंभ होकर 12 वर्ष तक चलती रहती है इस अवधि में बालकों में कल्पना शक्ति एवं चिंतन शक्ति में वृद्धि होती है तार्किकता एवं वस्तुनिष्ठता में वृद्धि होती है बालक दो वस्तुओं अर्थात ठोस वस्तुओं के आधार पर वे आसानी से मानसिक संक्रियाएं करके समस्या का समाधान कर लेते हैं परंतु यदि उन वस्तुओं को न देकर उसके बारे में शाब्दिक कथन तैयार करके यदि समस्या उपस्थित की जाती है तो वह ऐसी समस्याओं पर मानसिक संक्रियाएं कर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में असमर्थ होते हैं जैसे यदि उन्हें 3 वस्तुएं A, B, C दी जाए तो उन्हें देखकर भी आसानी से कह देंगे कि इनमें A, B से बड़ा है B, C से बड़ा है अतः सबसे बड़ा A है परंतु यदि उन्हें कहा जाए कि रमेश, राम से बड़ा है राम बड़ा है श्याम से, तो तीनों में सबसे बड़ा कौन है तो विद्यार्थी उत्तर देने में असमर्थ हो जाते हैं
4. औपचारिक संक्रियात्मक अवधि― यह अवधि 12 वर्ष से आरंभ होती है और वयस्क अवस्था तक चलती है इस अवस्था में किशोरों का चिंतन अधिक लचीला होता है तथा प्रभावशाली भी होता है उसके चिंतन में पूर्ण क्रमबद्धता आ जाती है अब वे किसी भी समस्या का समाधान काल्पनिक रूप से सोचकर एवं चिंतन करके करने में सक्षम हो जाते हैं इस अवस्था में समस्या के समाधान के लिए समस्या को ठोस रूप में प्रस्तुत करना अनिवार्य नहीं होता है इस तरह किशोरों के चिंतन में वस्तुनिष्ठता तथा वास्तविकता की भूमिका बढ़ जाती है
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