विकास की अवस्थाएँ, विशेषताएँ

 विकास की अवस्थाएँ(Stages of Development)





  1. शैशवावस्था ― जन्म से 5 या 6 वर्षों तक
  2.  बाल्यावस्था ― 6 से 12 वर्ष तक
  3.  किशोरावस्था ― 12 से 18 वर्ष तक
  4.  प्रौढ़ावस्था ― 18 वर्ष के बाद






शैशवावस्था (Infancy)


 शैशवावस्था जन्म होने के उपरांत मानव विकास की प्रथम अवस्था है शैशवावस्था को जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण काल माना जाता है इस अवस्था को व्यक्ति के विकास की नींव भी कहा जाता है अतः इस अवस्था में शिशु के विकास पर जितना ध्यान दिया जाता है उतना ही उसका अच्छा विकास होता है

 शैशवावस्था के बारे में मनोवैज्ञानिकों के विचार

न्यूमैन के अनुसार, “पांच वर्ष तक की अवस्था शरीर तथा मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील होती है”

एडलर के अनुसार, “बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में उसका क्या स्थान है”

गुडएनफ के अनुसार, “व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है उसका आधा 3 वर्ष की आयु तक हो जाता है”

 शैशवावस्था की विशेषताएं (Characteristics of Infancy)



  1. शारीरिक विकास में तीव्रता― बालक के जीवन में प्रथम 3 वर्षों में शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है प्रथम वर्ष में लंबाई तथा भार दोनों में तीव्र गति से वृद्धि होती है उसकी कर्मेन्द्रियों, आंतरिक अंगों, मांसपेशियों आदि का भी विकास होता है
  2. दोहराने की प्रवृत्ति― शैशवावस्था में किसी कार्य को दोहराने की विशेष प्रवृत्ति पाई जाती है ऐसा करने में शिशु को आनंद आता है इसी आधार पर किंडरगार्डन और मांटेसरी स्कूलों में बच्चों से गति और रचना की आवृत्ति करवाई जाती है
  3.  सीखने में तीव्रता― शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्रता होती है वह अनेक मुझसे बातें बहुत आसानी से और बहुत जल्दी सीख लेते हैं
  4.  कल्पना― शैशवावस्था में कल्पना का बाहुल्य होता है शिशु परियों की कहानी को सच समझता है उससे लगता है कि सचमुच में परियां होती हैं शिशु कल्पना जगत को यथार्थ समझता है यथार्थ जगत की गतिविधियां उसे प्रभावित नहीं करती शिशु की कल्पना शक्ति इतनी प्रबल होती है कि बहुत सारी बातें वह कल्पना कर लेता है
  5.  दूसरों पर निर्भरता― मानव शिशु जन्म से ही कुछ समय बाद तक निरंतर असहाय स्थिति में होता है वह अपनी भौतिक तथा संवेगात्मक आवश्यकताओं के लिए अपने माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों पर आश्रित रहता है
  6. संवेगो का प्रदर्शन― शिशु जन्म से ही संवेगात्मक व्यवहार प्रदर्शित करता है जन्म से ही रोने, चिल्लाने, हाथ-पैर पटकने आदि क्रियाएं प्रदर्शित करता है इस प्रकार जन्म के समय भी उसे उत्तेजना का संवेग रहता है
  7.  दूसरे शिशुओं के प्रति रूचि― बालक 1 वर्ष का होने से पूर्व ही अपने साथियों में रुचि व्यक्त करने लगता है आरंभ में इस रुचि का स्वरूप अनिश्चित होता है पर शीघ्र ही यह अधिक निश्चित रूप धारण कर लेता है और रुचि एवं अरुचि के रूप में प्रकट होने लगती हैं
  8.  नैतिक भावना का अभाव― इस अवस्था में शिशु में नैतिक भावना जागृत नहीं हो पाती है उसे उचित अनुचित अच्छी बुरी बातों का ज्ञान नहीं हो पाता वह वही कार्य करता है जिसमें उसे आनंद आता है भले वह नैतिक हो या अनैतिक, उन कार्यों को वह कभी नहीं करता जिससे उसे दु:ख होता है
  9.  अनुकरण द्वारा सीखना― शिशु सबसे अधिक और शीघ्रता पूर्वक अनुकरण विधि से सीखता है वे परिवार में माता-पिता भाई-बहन और अन्य सदस्यों के व्यवहार का अनुकरण करके शीघ्रता पूर्वक सीख जाते हैं
  10. प्रत्याक्षात्मक अनुभव द्वारा सीखना― शिशु मानसिक रूप से परिपक्व ना होने के कारण प्रत्यक्ष और स्थूल वस्तुओं के सहारे सीखता है किंडरगार्डन तथा मांटेसरी प्रणाली में उपहारों तथा शिक्षा उपकरणों का प्रयोग किया जाता है इनका निरीक्षण वह करता है तथा ज्ञानेंद्रियों द्वारा अनुभव प्राप्त करता है

शैशवावस्था में शारीरिक विकास (Physical Development During Infancy)


इस अवस्था में विकास का रूप दो ढंग का होता है 

प्रथम जन्म से लेकर लगभग 3 वर्ष तक जिसमें विकास की दर बहुत तेज होती है जहां तक की शिशु जन्म से 3 वर्षों के भीतर  2 गुना 3 गुना बढ़ जाता है 

दूसरे 3 वर्ष के बाद लगभग 6 वर्ष तक जिसमें विकास की गति मंद होती है और शरीर का स्थायीकरण होता है उसमें दृढ़ता आती है और शरीर तथा मस्तिष्क में संतुलन स्थापित होता है जिसके फलस्वरूप वह अपने हाथ पैर का अपने आप प्रयोग करने लगता है स्वयं चीजों को उठाता व रखता है 

शारीरिक विकास की विशेषताएं निम्न हैं_

1.कोमल अंग- जन्म के समय नवजात शिशु का शरीर और उसके अंग कोमल और निर्बल से होते हैं इसके कारण शिशु अपने माता पिता पर आश्रित व निर्भर रहते हैं 

2.आकार व भार- शरीर का ढांचा लगभग 17 से 22 इंच तक लंबा होता है और 5-6 वर्ष तक यह लंबाई 3 फुट हो जाती है इसी प्रकार से बाहर का विकास होता है जन्म के समय लगभग 6 से 9 पाउंड लेकिन दो-तीन वर्षों के बाद लगभग 20 पाउंड और 5 वर्षों के बाद लगभग 30 से 35 पाउंड बढ़ जाता है मस्तिष्क का भार जन्म के समय लगभग 300 से 350 ग्राम होता है तथा वयस्क व्यक्ति के मस्तिष्क का भार 1400 ग्राम बताया गया है यह मस्तिष्क 5 से 6 वर्ष में वयस्क मस्तिष्क का 80% भार अर्जित कर लेता है जिससे पता चलता है कि मस्तिष्क की वृद्धि सबसे तेजी से होती है 

3.दांत आना - जन्म के समय कोई दांत नहीं होते हैं लेकिन 1 साल के बाद दूध के दांत निकलना शुरू हो जाते हैं और दो-ढाई वर्ष तक लगभग 28 दांत हो जाते हैं 5 से 6 वर्ष में कुछ दूध वाले दाँत गिर भी जाते हैं और उसके स्थान पर स्थाई दांत निकल आते हैं 

6. निश्चित विकास क्रम- शिशु के शारीरिक विकास में एक निश्चित क्रम होता है शारीरिक विकास और क्रियात्मक विकास में एक निश्चित अनुपात होता है इसी अनुपात के कारण वह क्रमशाह नियंत्रण की क्षमता भी प्राप्त करता जाता है और यह क्षमता आने वाले वर्षों में और भी बढ़ जाती है 

7. मानसिक व शारीरिक विकास साथ-साथ- शारीरिक विकास में चूँकि मस्तिष्क भी शामिल है इसलिए इस अवस्था में शारीरिक विकास का प्रभाव मानसिक विकास पर भी पड़ता है और दोनों एक साथ विकसित होते हैं यदि शरीर ठीक है तो मस्तिष्क ठीक रहता है 

8. वैयक्तिक अंतर होना- विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से प्रकट होता है कि शिशुओं की शारीरिक वृद्धि में व्यक्तिक अंतर पाया जाता है यह अंतर भार, ऊँचाई और मोटाई में होता है

शैशवावस्था में मानसिक विकास (Mental Development During Infacy)


इस अवस्था में मानसिक विकास की निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं 

1.ज्ञानेंद्रियों में संवेदन- शिशु को अपने चारों ओर की दुनिया का ज्ञान ज्ञानेंद्रियों से होता है इनमें शिशु के आंख और कान सबसे पहले काम करते हैं तथा स्पर्शेद्रियाँ और इसके बाद में स्वाद इंद्रियां और अंत में ज्ञानेंद्रियाँ क्रियाशील होती हैं 

2 . अवबोधन- शिशु में शुरू के 2 वर्ष तक अवबोधन अर्थात जानने समझने की क्षमता का ज्ञान नहीं होता क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति के साधन उसके पास नहीं होते 2 वर्ष के बाद भाषा के माध्यम से वह अपने अवबोधन को प्रकट करता है यद्यपि स्पष्ट भाषा का प्रयोग इसके बाद ही होता है 

3. निरीक्षण और प्रत्यक्षीकरण- इसका आरंभ भी उस समय होता है जबकि शिशु चलने फिरने और दौड़ने और बोलने लगता है और उसका संपर्क विभिन्न वस्तुओं से होता है वह खेलता है चीजों को देखता है उठाता है तोड़ता-फोड़ता है इस प्रकार से 2 वर्ष बाद से निरीक्षण का विकास होता है और अनुभव बढ़ने के साथ इसमें भी वृद्धि होती है अपने हाथ-पाव, आंख आदि से जो कुछ शिशु छूता, चखता, देखता और सुनता है उसका प्रत्यक्ष ज्ञान उसे होता है 

4. भाषा और प्रत्यय- मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि बच्चों का भाषा विकास भी प्रथम रुदन के रूप में जन्म लेते ही शुरू हो जाता है बाद में उसकी मुस्कान, किलकारी और चिल्लाहट जो जन्म के दो, चार दिन या 1 हफ्ते के बाद शुरू होती है वह भी भाषा विकास के चरण हैं जन्म की के 1 वर्ष के भीतर अ, म, क जैसे नाद प्रकट होने लगते हैं कुछ वस्तुओं को पहचानने के कारण वह 2 वर्ष के भीतर पानी, अम्मा, भाई, बाबा, घर, गेंद जैसे शब्दों को कह लेता है 3 वर्ष का शिशु दौड़ना, चिल्लाना, खिलौना इत्यादि शब्दों को केवल समझ ही नहीं लेता बल्कि इसका अर्थ और संकेत भी समझ लेता है 4 से 5 वर्ष में प्रत्ययों का अधिकाधिक विकास होने से ही शिशु शब्द और वाक्य के द्वारा स्पष्ट ढंग से विचार प्रकट कर सकता है 

5. तर्क व निर्णय- तर्को और निर्णय की शक्ति का अभाव शिशु में होता है यही कारण है कि शिशु का व्यवहार अधिकतर  तर्क हीन होता है 

6. रचना की बुद्धि- जैसा वातावरण से शिशु को मिलता है वैसी ही बुद्धि बढ़ती है फिर भी अनुवांशिकता का प्रभाव भी पाया जाता है तथा अधिक बुद्धिमान माता-पिता के शिशु शीघ्र ही बुद्धि पूर्ण ढंग से व्यवहार करते हैं बुद्धि का प्रयोग बच्चों के उठने-बैठने, खेलने, कूदने, खाने-पीने, बातचीत करने और अपने विचारों को प्रकट करने में पाया जाता है 

7. जिज्ञासा- जिज्ञासा का विकास पांचवें-छठे वर्ष में होता है इसका कारण अनुभव की वृद्धि है इसी वर्ष वह क्या, क्यों, कैसे, कौन आदि प्रश्न सूचक बातें उठाता है और वास्तविकता की जानकारी के लिए कोशिश करता है 

8. अनुकरण से सीखना- इस अवस्था में शिशु दूसरों को देखकर वैसा ही करता है और बहुत सी बातें इससे सीख लेता है 

संवेगात्मक विकास (Emotional Development)


संवेगात्मक विकास की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है 

1. मूल प्रवृत्तियों का विकास और प्रभाव- इस अवस्था में शिशु की मूल प्रवृत्तियां विकसित होती हैं 14 मूल प्रवृत्तियों में भोजन ढूंढना, जिज्ञासा, रचना, काम, सामाजिकता की मूल प्रवृत्ति विशेषकर विकसित और क्रियाशील होती है 

2. संवेग, भाव, भावना-ग्रंथियों का विकास- इस अवस्था में कुछ विशेष संवेगों का विकास होता है उपर्युक्त मूल प्रवृत्तियों के जुड़े हुए संवेग, भूख, आश्चर्य, रचनात्मकता, कामुकता और एकाकीपन के संवेग लगभग शुरू से लेकर ढाई-तीन वर्ष तक बढ़ते हैं 5-6 साल में सामाजिक भावना पूरी तरह से विकसित दिखाई देती है इसी से शिशु घर के बाहर ही खेलता और मिलता-जुलता है सामान्य प्रवृत्तियों में इस समय खेल और अनुकरण की प्रवृत्ति मुख्य रूप से पाई जाती है 4 से 5 वर्ष की आयु के बच्चों में सहानुभूति की भावना पाई जाती है खेल के साथियों के साथ सहानुभूति विशेष कर पाई जाती है 

3. आज्ञापालन- माता-पिता की आज्ञा का पालन करना यह भी शिशुओं में काफी मात्रा में मिलता है इस कारण शारीरिक निर्बलता और पराश्रितता रहता है इसी के आधार पर शिशु में सच बोलना, सहानुभूति के साथ काम करना, धर्म की प्रवृत्ति दिखाना आदि क्रियाएं होती हैं 

4. स्नेह- माता के प्रति अधिक स्नेह शैशवावस्था में देखने को मिलता है प्राय: माता के प्रति अशिष्ट व्यवहार या उसे रोते देखकर सभी बच्चे रोने लगते हैं स्नेह की चाह इस अवस्था में बहुत अधिक होती है वह दूसरों के समान स्नेह पाना चाहते हैं यदि उन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा तो वह रोने लगते हैं 

5. संवेग में तीव्रता- इस अवस्था में संवेगों में बहुत अधिक तीव्रता पाई जाती है वह बहुत जल्द ही दूसरों के सामने अपने संदेशों को प्रकट कर देते हैं लेकिन अनुभव बढ़ने के साथ ही साथ संवेगों की तीव्रता में कमी आने लगती है

सामाजिक विकास (Social Development During Infancy)


सामाजिक विकास की विशेषताएं निम्न है 

1.'मैं तुम' की भावना- 2 वर्ष की आयु में शिशु अपने खिलौने से स्वयं खेलता है दूसरों के खिलौनों को लेने की भी कोशिश करता है और उसमें मैं और तुम का विचार दो ढाई साल में आता है 

2.आदान-प्रदान की भावना- 3 वर्ष की आयु में सामाजिक भावना का अधिक विकास होता है क्योंकि वह घर से बाहर पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता है इस प्रकार तीसरे वर्ष और आगे की आयु के दौरान बच्चों ने सामाजिक खेलों में भाग लेने की भावना का विकास होता है घर के अन्य बच्चों के साथ खाने पीने तथा खेलने में आदान-प्रदान की सामाजिक क्रियाएँ बढ़ती हैं 

3. समूह भावना- समूह के निर्माण की भावना भी इस अवस्था में पाई जाती है प्रायः लड़के और लड़कियों के समूह बन जाते हैं यद्यपि एक साथ खेलते हैं समूह विशेष में लिंग विशेष के सदस्य बनते हैं 4 से 5 वर्ष में यह होता है 

4. आदतों का निर्माण- इस अवस्था में प्राप्त की गई सामाजिक आदतें आगामी वर्षों में आने वाले सामाजिक व्यवहार की प्रतिदर्श (Patterns) बनती हैं सामाजिक विकास एवं व्यवहार के विचार से यह अवस्था बहुत महत्वपूर्ण है 

5. वातावरण का प्रभाव- सामाजिक विकास में वातावरण का प्रभाव दिखाई देता है यही कारण है कि नर्सरी स्कूल मांटेसरी स्कूल या किंडरगार्डन विद्यालयों में जाने वाले शिशुओं का सामाजिक विकास अधिक होता है अच्छे परिवारों के शिशुओं में भी सामाजिक विकास अधिक अच्छा होता है इस अवस्था में शिशु वातावरण के प्रति संवेदनशील होता है 

6. प्रतियोगिता की भावना- इस अवस्था में प्रतियोगिता जैसे सामाजिक लक्षणों का विकास होता है घर से बाहर के प्रभाव के कारण यह विकास होता है 4 से 5 वर्ष की आयु में इसका आरंभ होता है 

7. नैतिक भावना का विकास- शिशु में नैतिक भावना और दृष्टिकोण का विकास 5 से 6 वर्ष की आयु में होने लगता है उचित और अनुचित का विचार शिशु को ठीक उसी रूप में होता है अर्थात वास्तविक रूप में ही वह उसे स्वीकार करता है

शैशवावस्था और शिक्षा Infancy and Education )


शैशवावस्था शिक्षा से संबंधित विशेष ध्यान रखने वाली कुछ बातें निम्न है 

  1. उचित गुणों का विकास करना चाहिए 
  2. वातावरण पर ध्यान देना चाहिए 
  3. खेल आदि की व्यवस्था करनी चाहिए 
  4. बच्चों में अच्छे व्यवहार का विकास करने की कोशिश करनी चाहिए 
  5. सोचने-विचारने का अवसर देना चाहिए 
  6. समूह क्रियाओं का अवसर देना चाहिए 
  7. शारीरिक या मानसिक रूप से दंड या दमन  नहीं करना चाहिए






 बाल्यावस्था(Childhood)


शैशवावस्था के तुरंत बाद बाल्यावस्था प्रारंभ होती है मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बाल्यावस्था बालक का निर्माण निर्माणकारी काल है इस अवस्था में बालक व्यक्तिगत सामाजिक और शिक्षा संबंधी बहुत सी आदतें व्यवहार, रुचियां, इच्छाओं का निर्माण कर लेता है इस काल में बालक में आदतों, इच्छाओं और रूचियों के जो भी प्रतिरूप बनते हैं वह लगभग स्थाई रूप धारण कर लेते हैं और उन्हें सरलता पूर्वक रूपांतरित नहीं किया जा सकता सामान्यता बाल्यावस्था मानव जीवन के लगभग 6 से 12 वर्ष के बीच की आयु का वह काल है जिसमें बालक के जीवन में स्थायित्व आने लगता है और बालक आगे आने वाली जीवन की तैयारी करता है इसे ‛चुस्ती की आयु’ भी कहते हैं

बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताएं


  1. कल्पना में वास्तविकता का समावेश― बाल्यकाल में बालक शैशवावस्था की भांति अवास्तविक कल्पनाएं नहीं करता अवस्था बढ़ने के साथ साथ ही उसकी कल्पना में वास्तविकता आ जाती है वह काल्पनिक जगत और वास्तविक जगत में अंतर समझने लगता है
  2.  मानसिक योग्यता का विकास― इस अवस्था में बालक की मानसिक योग्यताएं विकसित होने लगती हैं वह मूर्त तथा प्रत्यक्ष वस्तुओं पर सरलता से चिंतन करने लगते हैं समझने, स्मरण करने, तर्क करने आदि की योग्यता विकसित हो जाती हैं
  3. संचय प्रवृत्ति का विकास― इस अवस्था में बालक में रुचि और जिज्ञासा का विकास होता है साथ ही उसे संचय प्रवृत्ति का भी विकास होता है इस अवस्था में बालक तस्वीरें, खिलौने, पुस्तकें आदि एकत्रित करते हैं और उन्हें संभाल कर रखते हैं इस संचय से उन्हें आनंद मिलता है
  4.   प्रबल जिज्ञासा प्रवृत्ति― बाल्यावस्था में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत तीव्र होती है वह अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए माता-पिता व घर के अन्य सदस्यों से प्रश्न पूछता है शैशवावस्था में उसके प्रश्नों की प्रकृति ‛क्या’ तक सीमित रहती है परंतु बाल्यावस्था में वह ‛क्यों’ और ‛कैसे’ भी जानना चाहता है
  5. नैतिकता का विकास― शैशवावस्था में बालक है ना तो नैतिक होता है और ना ही अनैतिक परंतु बाल्यावस्था में प्रवेश करता है वह नैतिक और अनैतिक में अंतर समझने लगता है और उसकी नैतिकता का विकास होने लगता है वह वातावरण के प्रति अधिक जागरूक रहने लगता समाज से बालक में नैतिकता का प्रभाव होने लगता है
  6.  भ्रमण की प्रवृत्ति― बालक 9 से 10 वर्ष की अवस्था तक उसमें भ्रमण की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है उसे इधर-उधर घूमने की तीव्र इच्छा होती है इसलिए प्राय: स्कूल में से कक्षाएं छोड़कर भागने, आलस्यपूर्ण ढंग से समय बर्बाद करने जैसी आदतें विकसित हो जाती हैं
  7.  आत्मनिर्भरता की भावना― बाल्यावस्था में आत्मनिर्भरता की भावना उत्पन्न होने लगती है वह अपने दैनिक कार्य स्वयं करने लगता है जैसे नहाना, धोना, कपड़े पहनना, स्कूल जाने की तैयारी करना आदि
  8.  रचनात्मक कार्य में रुचि― बाल्यावस्था में रचनात्मक कार्यों में बहुत होती हैं बालक-बालिकाएं निर्माण कार्य करने में आनंद मिलता है वे अपनी रूचि के अनुसार विभिन्न रचनात्मक कार्य करते हैं जैसे मिट्टी के खिलौने बनाना, गुड़िया बनाना, कागज से गुलदस्ता बनाना आदि

बाल्यावस्था में शारीरिक विकास (Physical Development During Childhood)


बाल्यावस्था में शारीरिक विकास न बहुत तेज होता है न ही बहुत धीमा| शारीरिक विकास की कुछ विशेषताएं निम्न है 

1.शारीरिक परिवर्तन- शरीर के आंतरिक और बाह्य अंगों में परिवर्तन होने होता है यह बहुत बारीक तौर पर जांच करने से मालूम होता है 

2.तीव्र विकास- प्रथम 3 वर्षों में शारीरिक विकास तेजी से होता है लेकिन बाद के 3 वर्षों में शारीरिक विकास की गति मंद पड़ जाती है 

3. यौनिक अंतर- ऊंचाई में लड़कियां लड़कों की अपेक्षा आगे होती हैं विभिन्न अध्ययनों में पाया गया है कि लगभग दो-तीन इंच लंबाई प्रतिवर्ष बढ़ती है 11-12 वर्ष की लड़कियों की लंबाई लड़कों की लंबाई से अधिक होती है 

4. भार में वृद्धि- भार में भी विकास होता है भार में भी लड़कियां लड़कों से आगे होती हैं 11-12 साल की लड़कियां का भार लड़कों की अपेक्षा अधिक होता है 

5. स्थाई दांत- इस अवस्था में स्थाई दांत निकल आते हैं और दूध के सभी दांत गिर जाते हैं यह भी परिपक्वता की एक निशानी है 

6. शरीर पर नियंत्रण- क्योंकि बालक सक्रिय होता है इसलिए निश्चय ही वह अपने शरीर के अवयवों एवं शक्तियों का नियंत्रण कर ही लेता है और उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार प्रयोग भी करता है इस प्रकार के नियंत्रण में भी परिपक्वता की ओर बढ़ने के लक्षण दिखाई देते हैं 

7. सामंजस्य की छमता- बालक में सामंजस्य स्थापित करके परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता पूर्ण रूप से आ जाती है क्योंकि उसकी कर्म इंद्रियां और ज्ञानेंद्रियां दोनों काफी बढ़ जाती हैं समाज में वह उत्तरदायित्व के साथ काम भी इसीलिए करता है 

8. साधारण प्रवृत्ति- बाल्यावस्था में बच्चे अपने को सँवारने-सुधारने पर ध्यान नहीं रखते यह अवस्था इसीलिए साधारण अवस्था होती है इसलिए इसे "गंदी अवस्था" भी कहते हैं

बाल्यावस्था में मानसिक विकास (Mental Development During Childhood)


लगभग 4 वर्ष की आयु पूरी होते ही बच्चे का 50% तक मानसिक विकास हो जाता है और 11 से 12 वर्ष की आयु तक लगभग 90% तक मानसिक विकास हो जाता है मानसिक विकास की विशेषताएं निम्नलिखित हैं 

1. प्रत्यक्षीकरण तथा ध्यान का विकास- ज्ञानेंद्रियों के प्रौढ़ होने पर बालक अब केवल साधारण संवेदन ही नहीं कर पाता बल्कि वह शिशु की अपेक्षा अधिक ध्यान और मनन की क्रियाओं में लगता है 

2. विवेक में वृद्धि- अवबोधन और विवेक में वृद्धि होती है अनुभव के बढ़ने से विभिन्न परिस्थितियों की वास्तविकता को जानने की कोशिश में वह केवल संवेग और मूल प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर कार्य नहीं करता बल्कि ध्यान पूर्वक सोचकर तथा विवेक के साथ परिस्थितियों का अवबोधन करके कार्य करता है 

3. जिज्ञासा की वृद्धि- नई परिस्थितियों तथा नए लोगों से संपर्क होने पर बाल्यावस्था में जिज्ञासा की वृद्धि होती है चुकिं  जिज्ञासा की प्रवृत्ति तेज होती है इसीलिए वह ऐसा काम करना चाहता है जो अन्वेषण और साहस वाला हो 

4. रुचि का विकास- पढ़ने तथा सीखने में रुचि की वृद्धि होती है यदि बालक को पुस्तकालय का सदस्य बना दिया जाए या किसी ऐसी बाल गोष्ठी में सदस्य ही बना दिया जाए जहां वह पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाओं आदि की सुविधा पाए तो निश्चय ही वह अनेक बातों को पढ़कर मालूम करता है 

5. भाषा का विकास- भाषा का विकास इस अवस्था में बहुत तेजी से होता है इस समय उसके शब्द भंडार में लगभग 50000 शब्द पाए जाते हैं 

6. तर्क का विकास- जिज्ञासा के कारण बच्चे वास्तविकता जानने की कोशिश करते हैं अतः यह स्पष्ट है कि तर्क के आधार पर वह चीजों को स्वीकार करते हैं बुद्धि के विकास से भी तर्क के विकास में मदद मिलती है 

7. रचना शक्ति का विकास- कार्य कुशलता और रचनात्मक शक्ति का विकास इस अवस्था में पाया जाता है फलस्वरुप बालक सभी कामों को चतुराई और सफाई से करता है 

8. आदर्श निर्माण- संबंधों को समझने और आदर्श निर्माण करने की क्षमता भी इस अवस्था में पाई जाती है यही कारण है कि वह माता-पिता अध्यापक तथा समाज के बड़े लोगों के प्रति उचित अभिवृत्ति रखता है 

9. समस्या हल करने की क्षमता- समस्या हल करने की क्षमता भी 10 से 12 वर्ष के बालक में अच्छी मात्रा में पाई जाती है यही कारण है कि वह सूज-भुज कर कार्य करता है और समस्या को हल करने की कोशिश करता है 

10. कल्पनिक भय- इस अवस्था के दौरान बच्चों में काल्पनिक पाया जाता है जैसे बाल्यावस्था के दौरान बच्चों से पुलिस, भूत-प्रेत, चुड़ैल लोग बच्चों को उठा ले जाते हैं जैसे काल्पनिक भय जो बच्चों में जगाकर उन्हें किसी न किसी प्रकार से आवश्यकतानुसार मनाने का प्रयास करते हैं लेकिन धीरे-धीरे उत्तर बाल्यावस्था आने तक यह भय समाप्त होने लगता है

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास (Social Development During Childhood)


बाल्यावस्था में सामाजिक विकास की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं 

1.समूह भाव- इस अवस्था के अंतर्गत अंतिम वर्षों को 'टोली या समूह आयु' कहते हैं टोली का अर्थ है ऐसे लड़के या लड़कियों का समूह जिसने समवयस्कता हो और जो अपना काफी समय एक साथ बिताते हैं 

2. समाज केंद्रित भावना- शिशु आत्म केंद्रित, स्वार्थी और झगड़ालू हुआ करता है इससे सामाजिकता की कमी मालूम पड़ती है बालक इसका उल्टा होता है वह परकेंद्रित, परार्थी और शांत होता है अतः वह समाज में खप जाता है और अनुकूलित हो जाता है 

3. समूह भक्ति- समूह भक्ति बालक में तीव्र होती है समूह के नेता का सम्मान करने के लिए बालक अपने माता पिता और अध्यापक से संघर्ष कर बैठता है वह उन्हीं की रुचियों और अज्ञान को मानता है और दूसरों से झूठ बोलता है धोखा देता है अथवा अन्य प्रकार से अनुचित व्यवहार करता है यही आगे चलकर वर्ग संघर्ष का रूप ले लेता है 

4. अपचरिता- सामाजिक भावना का विकास इस अवस्था में ठीक तरह से न होने पर यह सामाजिक अपचार(Deliquency) का रूप धारण कर लेता है फलस्वरूप खेलने की बजाय बालक बगीचे में फल-फूल तोड़ देते हैं या समाज की संपत्ति नष्ट करते हैं जैसे किसी सड़क पर कोई भी सर्वजनिक संपत्ति को नष्ट करना 

5. खेल की प्रचुरता- इस अवस्था में खेल रचनात्मक खेल, ड्राइंग, चित्रकला, मिट्टी, लकड़ी, कागज आदि के कार्य बाहय खेल, मनोरंजन की क्रियाएं आदि की प्रचुरता पाई जाती है  

6. सामाजिक चेतना की जागृति- बाल्यावस्था के अंतिम वर्षों में जबकि वह प्रारंभिक विद्यालय की अंतिम कक्षा में होता है तो उसमें सामाजिक चेतना बड़ी मात्रा में आ जाता है जिसके बल पर वह दूरस्थ और भिन्न सामाजिक प्रतिदर्शों और संस्कृतियों को जान जाता है उसका सामाजिकरण होता है

 बाल्यावस्था और शिक्षा (Childhood and Education)


बाल्यावस्था व्यक्ति के शैक्षिक जीवन की मध्य कड़ी कही जा सकती है जिसका संबंध एक ओर भूत की शैशवावस्था दूसरी ओर भविष्य की किशोरावस्था से होता है इस में ध्यान रखने योग्य बातें निम्नलिखित हैं 

  1. उचित ढंग से विकास हो 
  2. उचित वातावरण 
  3. जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास किया जाए 
  4. उचित शिक्षा दी जाए 
  5. अच्छा साहित्य पढ़ाया जाए 
  6. संवेगो पर ध्यान दिया जाए 
  7. सामान्य प्रवृत्तियों का भी विकास हो 
  8. यथार्थ जीवन की शिक्षा दी जाए 
  9. उचित मूल्य एवं गुणों को बढ़ावा दिया जाए 
  10. बच्चों के अनुरूप पाठ्यक्रम हो 
  11. शिक्षा के लिए क्रियात्मक विधियों का प्रयोग किया जाए 
  12. शिक्षक का उचित स्थान हो





किशोरावस्था(Adolescence)


किशोरावस्था अंग्रेजी भाषा के शब्द ‛एडोलेसेंस’ (Adolescence) का हिंदी रूपांतरण है एडमिशन शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‛एडोलिसियर’ (Adolescere) से हुई है जिसका अर्थ है- परिपक्वता की ओर बढ़ना, किशोरावस्था मानव जीवन की सबसे महत्वपूर्ण अवस्था हैं यह जीवन का सबसे कठिन काल है अतः किशोरावस्था अवस्था है जिसमें बालक परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है तथा जिसकी समाप्ति पर वह परिपक्व व्यक्ति बन जाता है यह अवस्था 12 से 18 वर्ष की आयु के बीच की अवधि को माना जाता है

जरसील्ड के अनुसार, “किशोरावस्था वह समय है जिसमें व्यक्ति बाल्यावस्था से प्रौढ़ावस्था की ओर विकसित होता है”

 स्टैनली हॉल के अनुसार, “किशोरावस्था दबाव तथा तूफान एवं संघर्ष काल है”

 किशोरावस्था की विशेषताएं


  1.  शारीरिक विकास― किशोरावस्था में आंतरिक तथा  बाहरी शारीरिक परिवर्तन अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं  इस अवस्था में सभी चीजों में परिवर्तन होने लगता है जैसे लड़कियों में आवाज मधुर होना और लड़कों की आवाज भारी होना चलने फिरने के अंदाज में बदलाव, हड्डियों के लचीलापन में कमी आदि कई तरह के शारीरिक और आंतरिक परिवर्तन होते हैं
  2. अधिकतम मानसिक विकास― किशोरावस्था में बालक का अधिकतम मानसिक विकास होता है बुद्धि का उच्चतम विकास भी पूरा हो जाता है अमूर्त चिंतन तथा तर्कशक्ति की अधिक योग्यता आ जाती है अवधान तथा स्मरण शक्ति का भी पूर्ण विकास हो जाता है
  3. आत्मसम्मान की भावना― इस अवस्था में बालक में आत्म सम्मान की प्रवृत्ति पाई जाती है वह समाज में प्रमुख स्थान पाना चाहता है आत्म सम्मान पाने के लिए कभी-कभी वह सामाजिक बंधनों का भी विरोध करता है
  4. स्थायित्व एवं समायोजन का अभाव― इस समय किशोर की मन: स्थिति अस्थिर होती है इस समय उसकी मनः स्थिति तेजी से परिवर्तन होता है कि वह कभी खुश होता है और कभी दुखी वह कभी कुछ विचार करता है और कभी कुछ और इसके परिणाम स्वरूप वह पर्यावरण से समायोजन करने में असमर्थ होता है
  5.  व्यवसाय चुनाव― इस अवस्था में किशोर अपने भावी भी व्यवसाय चुनने की चिंता करने लगता है वह अपनी रुचि के अनुसार अध्यापक, वकील, इंजीनियर, डॉक्टर आदि व्यवसाय के अनुसार पाठ विषयों का चुनाव करता है
  6.  ईश्वर और धार्मिक भावना का विकास― इस अवस्था में धार्मिक भावना बड़ी तेजी से विकसित होती है अपनी सफलता असफलता का कारण ईश्वर की मर्जी मानता है उसकी ईश्वर में प्रबल आस्था होती है अक्सर देखा जाता है कि परीक्षा में जाने से पूर्व विद्यार्थी धार्मिक कृत्य अवश्य करते हैं
  7.   कल्पना का बाहुल्य― इस अवस्था में कल्पना का बाहुल्य होता है व्यवहारिक जीवन में किशोर अपनी इच्छाओं को पूरा करने में असमर्थ पाता है फलस्वरूप अपनी इच्छाओं की पूर्ति वास्तविक जीवन में ना करके काल्पनिक जगत में करता है वह छोटी-छोटी बातों को लेकर कल्पना में डूब जाते हैं कल्पना में बहुल्य होने के कारण इस आयु में दिवास्वप्न देखने की प्रवृत्ति होती है
  8.  काम भावना का विकास― किशोरावस्था में काम प्रवृत्ति क्रियाशील होती है इस अवस्था में विषम लिंगीय प्रेम बढ़ जाता है इस अवस्था में लड़के और लड़कियां एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगते हैं

किशोरावस्था में शारीरिक विकास (Physical Development During Adolescence)


इस अवस्था में बहुत से परिवर्तन होते हैं यह परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं बाहय और आंतरिक।  किशोरावस्था में विकास की निम्नलिखित विशेषताएं हैं 

1. ऊंचाई में वृद्धि- ऊंचाई में वृद्धि होती है 16 वर्ष की समाप्ति तक किशोरियाँ लगभग पांच साडे 5 फीट तक बढ़ती हैं यह ऊंचाई अधिकतम होती है किशोरों की ऊंचाई 5 से 4 फीट तक पहुंचती है पराया किशोर अधिक लंबे होते हैं यद्यपि 15 वर्ष तक किशोरिया अधिक लंबी होती हैं16 वर्षों के बाद किशोरों की लंबाई कुछ बढ़ जाती है 

2. भार में वृद्धि- भार में भी वृद्धि होती है व्यक्तिक भिन्नता भार में अधिक दिखाई देती है औसत रूप से 16 वर्ष की किशोरियों का भार 130 पाउंड होता है जबकि प्रौढ़ता तक 135 पाउंड हो जाता है किशोरों का भार लगभग 142 पाउंड होता है जबकि प्रोड़ता तक 152 पाउंड हो जाता है इससे स्पष्ट है कि इस अवस्था में किशोरियों का भार कम होता है 

3. अंगों की वृद्धि- आंतरिक अंगों की वृद्धि होती है पाचन प्रणाली, रक्त संचार प्रणाली, ग्रंथि प्रणाली, श्वासन प्रणाली आदि में पर्याप्त विकास होता है और प्रौढ़ता आती है 

4. शारीरिक विकास- शारीरिक गठन और स्वास्थ्य का इन दशाओं में विकसित होता है शरीर के रंगों और मांसपेशियों में दृढ़ता आती है और सभी अंग पुष्ट दिखाई देते हैं इनकी आकृति में स्थिरता आती है सभी अंगों में अच्छा अनुपात होता है  

5. गले की ग्रंथि का विकास- गले की थायराइड ग्रंथि के बढ़ने से किशोर, किशोरियों की वाणी में अंतर आ जाता है किशोरों की वाणी भारी होने लगती है और किशोरियों की वाणी कोमल और मृदुल होने लगती है 

6. दाढ़ी मूंछ और बाल बढ़ना- किशोर के दाढ़ी मूछें निकलना शुरू हो जाते हैं तथा किशोर, किशोरियों के गुप्तांगों पर बाल आ जाते हैं 

7. काम ग्रंथि का विकास- किशोरियों और किशोरों में काम ग्रंथि के बढ़ने और सक्रिय होने से भी उनमें लिंगीय परिवर्तन होते हैं किशोरियों में मासिक रक्तस्राव आरंभ होता है और 14 वर्ष के बाद ही किशोरों में रात्रि दोष के लक्षण मिलते हैं प्राय: 16 वर्ष के बाद से ही लिंग या विकास की अधिकतम मात्रा किशोरावस्था पार करने पर ही प्राप्त होती है 

8. हड्डियों का विकास- सभी हड्डियों का पूर्णतम विकास इस अवस्था में होता है इसके अलावा अस्थियों के जोड़ भी दृढ़ हो जाते हैं इसके कारण किशोर अधिक कठिन कामों को करने में सफल होते हैं 

9. ज्ञानेंद्रियों में शक्ति का बढ़ना- मस्तिष्क, आंख, नाक, कान, त्वचा, स्वाद इंद्रियों का विकास पूर्ण रूप से होता है और उसकी शक्ति में वृद्धि होती है जिससे ज्ञानात्मक विकास अधिक से अधिक इस अवस्था में हो सकता है 

10. क्रियाशीलता में वृद्धि- क्रियाशीलता में वृद्धि का प्रकाशन विभिन्न अंगों से होता है जैसे दौड़ना, व्यायाम करना, श्रम के कार्य करना, देर तक कार्य करना आदि यह कार्य तेजी से करता है 

किशोरावस्था में मानसिक विकास (Mental Development During Adolescence )


सभी मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि इस आयु में मानसिक योग्यताएं निश्चित हो जाती हैं इसमें सोचने समझने अंतर करने व्याख्या करने समस्या सुलझाने, तर्क वितर्क करने की तमाम मानसिक शक्तियां काम करने लगती हैं कुछ विशेषताएं निम्न है 

1. मस्तिष्क का पूर्ण विकास- मस्तिष्क का विकास 15 वर्ष की आयु तक लगभग पूर्णता हो जाता है इस कारण मस्तिष्क की क्रियाशीलता तीव्र हो जाती है और किशोर, किशोरियाँ मानसिक परिपक्वता की ऊंचाइयों को छूने का प्रयत्न करने लगते हैं 

2. पढ़ने में रुचि का विकास- इसके फलस्वरूप उन्हें पढ़ने लिखने की रुचि बढ़ती है किशोर साहसी कहानियों, दूरदर्शी बातों से संबंधित ज्ञान, विज्ञान, खेल, क्रीड़ा आदि में रुचि दिखाता है इन्हें पढ़ता है किशोरियों की रूचि घरेलू कामकाज संबंधी और प्रेम की कहानियों की ओर होती है 

3. तर्कशक्ति का बढ़ना- तर्क तथा विवाद की शक्ति कि वृद्धि किशोरावस्था में होती है सभी किशोर कुछ तर्क अवश्य करते हैं यह अवस्था हाई स्कूल कक्षाओं की होती है जहां कुछ सुविधाएं भी मिलने से यह शक्ति अच्छी तरह विकसित होती है

4.  स्मृति व बुद्धि का बढ़ना- सामान्य रूप से मनोवैज्ञानिक का कथन है कि इस स्मृति परीक्षाओं में यह सिद्ध किया है कि किशोर 18 से 19 वर्ष तक स्मृति की अधिकतम मात्रा प्राप्त कर लेते हैं 

5. सीखने की वृद्धि- सीखने अथवा अधिगम क्षमता में विकास इस अवस्था में अधिक होता है इस अवस्था में जो पाठ्यक्रम विभिन्न देशों में होता है उससे स्पष्ट है कि वह विविध प्रकार का है और उसमें कई विषय हैं जो व्यवहारिक और सैद्धांतिक दोनों हैं इससे स्पष्ट है कि किशोरावस्था में सीखने की क्षमता का विकास काफी होता है इसके अलावा किशोर में जिज्ञासा भी प्रबल होती है 

6. कल्पना का विकास- किशोरावस्था के दौरान बच्चे कल्पना के विकास के कारण कला और अभिनय जैसी चीजों में रूचि लेते हैं कल्पना के विविध प्रकार इस अवस्था में पाए जाते हैं बाल्यावस्था में वास्तविक जगत से संबंधित कल्पना का प्रयोग अधिक होता है तो किशोरावस्था में काल्पनिक चीजों से जुड़ी कल्पना बहुत अधिक होती है जिसे दिवास्वप्न भी कहते हैं 

7. समस्या हल करने की शक्ति बढ़ना- समस्या हल करने की क्षमता में वृद्धि और विकास किशोरावस्था में स्पष्ट दिखाई देती है एक किशोर एक बालक की अपेक्षा समस्या को समस्या के रूप में जल्दी हल कर लेता है  

8. संवेदनशीलता पढ़ना- किशोरावस्था में ज्ञानेंद्रियों की संवेदनशीलता तीव्र और प्रौढ़ हुआ करती है संवेदना में परिपक्वता और दृढ़ता दिखाई देती है जिससे ज्ञान की प्रौढ़ता प्रकट होती है

किशोरावस्था में सामाजिक विकास (Social Development During Adolescence)

जैसे जैसे व्यक्ति बढ़ता है उस पर परिवार के अलावा अन्य सामाजिक समूहों का भी प्रभाव बढ़ता है सामाजिक संबंधों के विकास की कुछ विशेषताएं निम्न हैं 

1. समूह का सदस्य होना- किशोर विभिन्न समूह का सदस्य बनता है और परिस्थिति के अनुकूल वह व्यवहार करना सीखता है सामाजिक अभिवृत्ति और व्यवहार में परिवर्तन प्रायः यौनिक के कारण आता है इस अवस्था के समूहों को संगठित समूह दल या टोली भी कहते हैं 

2. संबंधों की स्थापना- मित्र तथा साथी के साथ संबंधों की स्थापना किशोरावस्था में गहरी होती है विद्यालय में प्राय: यह सभी बातें मिलती हैं पूरी कक्षा के लोग उनके साथी हैं जो शारीरिक व बौद्धिक बुद्धि में श्रेष्ठ होता है वह नेता बनता है और मित्र भी होते हैं जो बहुत प्रभाव डालते हैं इनसे प्रत्येक व्यक्ति प्रेरणा, सलाह और मार्गदर्शन लेता है 

3. सामाजिक मान्यता और परिपक्वता- सामाजिक मान्यता और सामाजिक परिपक्वता इस अवस्था के अंत में आती है सामाजिक मान्यता उसे मिलती है जो अपने व्यक्तित्व, व्यवहार कार्य का दूसरों पर प्रभाव डालते हैं और दूसरे लोग उसे अपना हितैषी माने। सामाजिक समायोजन की सफलता के फलस्वरुप और सामाजिकरण के कारण सामाजिक परिपक्वता आती है 

4. सामाजिक रुचियां- कुछ सामाजिक रुचियां भी इस अवस्था में विकसित होती हैं जैसे पार्टी में भाग लेने की रुचि, दूसरे के कार्यों में सहायता करने की रुचि, संगठन बनाने की रुचि, समाज सेवा करने की रुचि, समाज के लोगों से बातचीत करने की रुचि व्यवसाय वृद्धि की रुचि, क्लब और मनोरंजन में रुचि का विकास यह बताता है कि किशोरावस्था में सामाजिक विकास काफी हो जाता है 

5. सामाजिक चेतना का विकास- किशोर को यह ज्ञात हो जाता है कि समाज में उनका अस्तित्व क्या है और किस प्रकार उसे समाज में रहना चाहिए तथा समाज के कामों में भाग लेना चाहिए समाज में कौन-कौन वर्ग हैं उनमें क्या संबंध और विभिद हैं उसका संबंध किससे है और किससे नहीं है इस प्रकार की चेतना किशोरावस्था में आ जाती है 

6. राजनीति के लोगों से संबंध- ऐसा भाव किशोरावस्था के अंतिम वर्षों में मिलता है जब किशोर विश्वविद्यालय की कक्षाओं में पहुंचता है  तो उनके मन में यह भाव उत्पन्न होने लगता है राजनीतिक कार्यों में भी वह कुछ बहुत हिस्सा लेना शुरू कर देते हैं

किशोरावस्था और शिक्षा (Adolescence and Education)

किशोरावस्था तूफान और तेजी की अवस्था होती है इसलिए या भय रहता है कि कहीं किशोर किसी गलत रास्ते पर न चला जाए इसलिए इस समय माता-पिता अभिभावक और अध्यापक के मार्गदर्शन निर्देशन की आवश्यकता होती है इस अवस्था में शिक्षा में ध्यान देने वाली कुछ विशेषताएं निम्नलिखित है 

  1. शारीरिक स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना 
  2. किशोरों को और किशोरियों को एक नियमित जीवन सिखाना 
  3. अच्छे ज्ञान अर्जन के लिए उचित व्यवस्था करना 
  4. सही निर्देश देना ताकि उनका सही दिशा में विकास हो सके 
  5. यौन शिक्षा की व्यवस्था करना 
  6. स्वतंत्र वातावरण या माहौल देना  
  7. संवेगों को नियंत्रित करने की शिक्षा देना 
  8. उनके लक्ष्यों को प्राप्त करने का ज्ञान देना 
  9. व्यवसायिक शिक्षा का ज्ञान देना

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