समायोजन का अर्थ, परिभाषाएं, प्रक्रिया, विधियां

 समायोजन का अर्थ





समायोजन को सामंजस्य, व्यवस्थापन अथवा अनुकूलन भी कहा जाता है समायोजन शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है ‛सम’ और ‛आयोजन’ सम का तात्पर्य है- भली-भांति, अच्छी तरह अथवा समान रूप से और आयोजन का तात्पर्य है- व्यवस्था अर्थात अच्छी तरह से व्यवस्था करना इस तरह समायोजन का अर्थ हुआ- सुव्यवस्था अथवा अच्छे ढंग से परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की प्रक्रिया जिससे किसी व्यक्ति की आवश्यकताएं पूरी हो जाए



समायोजन की प्रक्रिया कई तत्वों के बीच संपन्न होती है यह एक स्थिति और एक प्रक्रिया दोनों का मिला जुला रूप है प्रक्रिया के रूप में यह ऐसी गतिशील क्रियाविधि का बोध कराती है जिसका विकास विविध परिस्थितियों से सामंजस्य कायम करने के सिलसिले में निरंतर देखा जा सकता है इस प्रकार समायोजन की प्रक्रिया व्यक्ति के विकास की प्रत्येक अवस्था में विद्यमान रहती हैं।






समायोजन की परिभाषा


बोरिंग, लैंगफोल्ड तथा वेल्ड के अनुसार- समायोजन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई जीवधारी अपनी आवश्यकताओं की संतुष्टि से संबंधित परिस्थितियों में संतुलन बनाए रखता है

कोलमैन के अनुसार- समायोजन व्यक्ति की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा कठिनाइयों के निराकरण के प्रयासों का परिणाम है

स्किनर के अनुसार- समायोजन शीर्षक के अंतर्गत हमारा अभिप्राय इन बातों से है सामूहिक क्रियाकलापों में स्वस्थ तथा उत्साहमय ढंग से भाग लेना, समय पड़ने पर नेतृत्व का भार उठाने की सीमा तक उत्तरदायित्व वाहन करना तथा सबसे बढ़कर समायोजन में अपने को किसी भी प्रकार का धोखा देने से बचने की कोशिश करना

स्मिथ- के अनुसार अच्छा समायोजन वह है जो यथार्थ पर आधारित तथा संतोष देने वाला होता है






समायोजन की प्रक्रिया


समायोजन के स्वरूप को समझने के बाद हमारे लिए आवश्यक है कि हम समायोजन की प्रक्रिया को समझ ले इसके अध्ययन के बाद हम सुसमायोजित व्यक्तियों को शिक्षा की सहायता से उत्पन्न करने में समर्थ हो सकेंगे समायोजन लगातार चलने वाली प्रक्रिया है जिसकी सहायता से व्यक्ति का जीवन अपने आप पर्यावरण के मध्य अधिक बेहतर संबंध स्थापित करने का प्रयास करता है
समायोजन की प्रक्रिया की सात अवस्थाएं होती है


  • प्रथम अवस्था― उत्तेजना महसूस करना (अपूर्व आवश्यकताओं के कारण आंतरिक या बाह्य या दोनों के द्वारा उत्तेजना का अनुभव) 
  • द्वितीय अवस्था― द्वंद (आवश्यकताओं के पूर्ण न होने पर द्वंद का अनुभव) 
  • तृतीय अवस्था― तनाव (द्वंद की मानसिक दशा से तनाव की उत्पत्ति) 
  • चतुर्थ अवस्था― तनाव के लक्षण का प्रकट होना (तनाव के शारीरिक और मानसिक लक्षणों का प्रकट होना पीड़ाग्रस्त एवं बेचैन रहना) 
  • पंचम अवस्था― प्रयास ( अपनी बेचैनी और पीड़ा को कम करने का प्रयास) 
  • छठी अवस्था― उन्मोचन (आवश्यकताओं की संतुष्टि से तनाव कम होना)  
  • सातवीं व्यवस्था― समायोजन ( उन्मोचन के आधार पर व्यक्ति स्वयं से तथा अपने वातावरण से समायोजन स्थापित करता है )






 समायोजन की विधियां


 समायोजन की दो विधियां होती हैं

  1. प्रत्यक्ष विधि 
  2. अप्रत्यक्ष विधि

 प्रत्यक्ष विधि 


प्रत्यक्ष विधियां वे विधियां हैं जिनके द्वारा बालक अथवा व्यक्ति चेतन अवस्था में अपने मानसिक तनाव को दूर करने का प्रयास करता है इन विधियों में वह अपनी तर्क एवं चिंतन शक्ति का प्रयोग करता है इन प्रत्यक्ष विधियों के कुछ उपाय निम्न हैं

प्रयत्न में सुधार-  इस विधि में व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति के लिए, आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए अतिरिक्त प्रयत्न करता है वह अपने लक्ष्य में आने वाली बाधाओं को चुनौती के रूप में स्वीकार करता है और उन बाधाओं को हटाने का प्रयास करता है इससे वह तनावों से मुक्ति पाता है 

अन्य मार्ग खोजना- इस विधि में व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति में आने वाली रुकावटें और बाधाओं को अनेक प्रयत्न द्वारा दूर नहीं कर पाता है तो वहां उसी के समरूप एक ऐसा लक्ष्य निर्धारित करता है जो उसकी इच्छा को संतुष्टि दे सके और वहां उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है लक्ष्य प्राप्ति में सफलता प्राप्त करने पर मानसिक तनाव दूर होता है 

समर्पण- जब कोई व्यक्ति अपने सारे प्रयत्नों द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर पाता तो वहां नियति मानकर एक ऐसा लक्ष्य निर्धारित करता है जिससे जिसे वह आसानी से प्राप्त कर सके और कम प्रयासों में उसे प्राप्त हो जाए वह उसी से प्रसन्न होकर अपने आप को संतुष्ट कर लेता है 

विश्लेषण एवं निर्णय- जब किसी व्यक्ति के सामने परस्पर विरोधी एक से अधिक लक्ष्य होते हैं तो वह निर्णय नहीं कर पाता कि वह किसे स्वीकार करें और किसे छोड़ दे इस विधि में वह अपने सामने उपस्थित सभी परिस्थितियों, क्षमताओं तथा योग्यताओं का विश्लेषण करता है और गुण एवं दोषों की विवेचना करके किसी एक लक्ष्य को चुन लेता है 




अप्रत्यक्ष विधियां 


अप्रत्यक्ष विधियां वे विधियां हैं जिन्हें व्यक्ति अचेतन रूप में अपनाता है तनाव से उत्पन्न दुखद अनुभूतियों से बचने के लिए व्यक्ति के अचेतन मन में कुछ प्रक्रिया चलती हैं जो स्वत: ही हो रही होती हैं व्यक्ति को इनका ज्ञान नहीं होता है इन प्रक्रियाओं को वह अपने मन में कल्पना के द्वारा चलाता रहता है इसके द्वारा उसका तनाव अस्थाई रूप से कम हो जाता है अप्रत्यक्ष विधियों के कुछ उपाय निम्न हैं 

दमन- दमन का अर्थ है किसी चीज को दबा देना। कभी-कभी व्यक्ति कुछ इच्छाओं को कई कारणों की वजह से पूरा नहीं कर पाता तो वह उन इच्छाओं अथवा कामनाओं को स्वतंत्र रूप से प्रकट नहीं होने देता और उन इच्छाओं को अपने अचेतन मन में धकेल देता है 

प्रतिगमन- प्रतिगमन का अर्थ हैं। पीछे लौटना इसमें व्यक्ति अपने दुख तनाव असंतोष से मुक्ति पाने के लिए अपने पूर्व अनुभव और प्रक्रियाओं की ओर लौट जाता है जिन्हें वह बाल्यावस्था में किया करता था जैसे- व्यक्ति कभी-कभी असफल होने पर बच्चों जैसा व्यवहार करता है जैसे- चिल्लाना, पैर पटकना, रोना आदि 

शोधन- शोधन का अर्थ होता है शुद्ध करना। मनोवैज्ञानिक भाषा में शोधन को एक युक्ति के रूप में प्रयुक्त किया गया है जिसका तात्पर्य है अचेतन की वह मानसिक प्रक्रिया जिसके द्वारा व्यक्ति की अवांछनीय आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को कृतिम पक्ष की ओर मोड़ दिया जाता है जिसे समाज की स्वीकृति प्राप्त होती है जैसे- किसी व्यक्ति द्वारा अपनी काम प्रवृत्ति को कला और दर्शन की ओर मोड़ देना 

पलायन- पलायन का अर्थ है पीछे हटना। इस युक्ति में व्यक्ति दुख और तनाव उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से अपने आपको अलग कर लेता है जैसे- किसी विद्यार्थी का किसी विद्यालय में किसी समूह द्वारा मजाक बनाने या अवहेलना करने पर कई बार विद्यार्थी विद्यालय को बदल देते हैं 

दिवास्वप्न- दिवास्वप्न का अर्थ होता है काल्पनिक जगत में रहना। इसमें व्यक्ति अपनी दुखद अनुभूतियों से निजात पाने के लिए वर्तमान से हटकर कल्पना लोक में विचरण करने लगता है और उसे सुख की अनुभूति होती है दिवास्वप्न द्वारा वह अपनी असफलताओं एवं तनाव की स्थितियों को सफलता एवं सुखद स्थितियों में बदल देता है और कुछ समय के लिए संतोष एवं सुख का अनुभव करता है 

एकरूपता- एकरूपता का अर्थ है किसी के जैसा समझना।  इसमें व्यक्ति द्वारा अपनी असफलता को छुपाने के लिए किसी सफल व्यक्ति के गुणों एवं कृतियों को अपने में दिखाने की कोशिश करता है जैसे- कोई बालक अपने अवगुणों को छुपाने के लिए कहता है कि मैं उन अमुक विद्वान का पुत्र हूं।

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