जैन दर्शन और शिक्षा सिद्धांत उद्देश्य

जैन दर्शन की परिभाषा (Definition of Jain philosophy)




जैन दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्मांड को अनेक द्रव्यों से निर्मित मानती है और यह मानती है कि इंद्रियग्राह्य वास्तु जगत और अंतःकरण द्वारा अनुभूत आत्मा दोनों सत्य है यह प्रत्येक आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व मानती है और ईश्वर में विश्वास नहीं करती और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य अपनी बद्ध आत्मा को उसका शुद्ध रूप प्रदान करना है जिसे रत्नत्रय (सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र) के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है








जैन दर्शन के मूल सिद्धांत (Basic principles of Jain philosophy)


1.सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र के लिए नैतिक जीवन आवश्यक है– जैन दार्शनिकों के अनुसार जब तक मनुष्य उच्च नैतिक जीवन को प्राप्त नहीं करता तब तक वह सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र को प्राप्त नहीं कर सकता। उच्च नैतिक जीवन के लिए जैन दार्शनिक पांच महाव्रतों (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य) के पालन और 4 कषायों (क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार) के त्याग पर बल देता है

2.कैवल्य की प्राप्ति के लिए सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं समय चरित्र आवश्यक है– जैन दर्शन के अनुसार जब तक जीव कर्मो से शून्य नहीं हो जाता तब तक वह अपने कर्मों के अनुसार अजीव द्रव्यों से संयोग करता रहता है और भिन्न-भिन्न योनियाँ प्राप्त करता रहता है मनुष्य योनि में वह सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र द्वारा अपने को कर्म शून्य कर अजीव द्रव्य धारण करने से मुक्त हो सकता है सम्यक दर्शन का अर्थ है तीर्थकरो एवं उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों में श्रद्धा, सम्यक ज्ञान का अर्थ है तीर्थकारों द्वारा प्रतिपादित द्रव्य संबंधी ज्ञान का यथार्थ अनुभव और सम्यक चरित्र का अर्थ है समय दर्शन और सम्यक ज्ञान के अनुसार आचरण करना और यह बहुत कठिन मार्ग है मोक्ष के इच्छुक व्यक्ति को इस कठिन मार्ग पर चलना ही होगा

3.मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति है– जैन दर्शन के अनुसार जब जीव मनुष्य के स्वरूप को धारण करता है तब वह अपने शुद्ध, बुद्ध तथा मुक्त स्वरुप को प्राप्त करने में सफल हो सकता है तब मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य यही होना चाहिए जैन दर्शन के अनुसार इस जगत के अतिरिक्त एक कैवल्य लोक हैं जिसमें सिद्धों की मुक्त आत्माएं शुद्ध-बुद्ध रूप में रहती हैं मुक्त आत्मा में इनके अनुसार 4 गुण होते हैं– अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य। इसे अनंत चतुष्टय कहा जाता है

4.मनुष्य जीवन का विकास उसके जीव अजीव द्रव्यों पर निर्भर करता है– जैन दर्शन के अनुसार जीवन विशेष अपने कर्मों के अनुसार अजीव द्रव्यों को संग्रहित करता है इसीलिए संसार में अनेक प्रकार के प्राणियों का प्रादुर्भाव होता है मनुष्य उनमें से एक है और मनुष्यों में भी जीव तो समान होता है परंतु पुद्गलजन्य विभिन्नता होती है मनुष्य का विकास उसके जीव (आत्मा) और इस पुद्गलजन्य विभिन्नता पर ही निर्भर करता है

5.मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है– जैन दर्शन के अनुसार जीव (आत्मा) अपने कर्मों के अनुसार अजीव (पुद्गल) संग्रहित करता है और अपने आपको उससे आवृत करता है परिणाम स्वरूप इस जगत में भिन्न-भिन्न प्राणियों का आविर्भाव होता है इसमें से एक प्राणी मनुष्य है जैन दर्शन के अनुसार जगत के अन्य प्राणियों प्राणी एक से पांच इंद्रियों तक के होते हैं परंतु मनुष्य 6 इंद्रियों वाला प्राणी है इसकी उसकी इस छठी इंद्रिय का नाम मन है मन के द्वारा वह सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र को प्राप्त कर अपनी आत्मा को शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त करने में सफल होता है इसी कारण वह संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है

6.जीवो की स्वतंत्र सत्ता है और ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं है– जैन दर्शन प्रत्येक जीव (आत्मा) की स्वतंत्र सत्ता मानता है इसके अनुसार सभी आत्माएं समान है परंतु एक नहीं है सभी आत्माएं अपने में शुद्ध–बुद्ध एवं मुक्त हैं सर्वज्ञ, सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान है परंतु अजीव द्रव्यों से आवृत होने के कारण अपने इस स्वरूप को भूल जाती है इसका मत है कि जीव अजीव अपने अपने स्वभाव गुण-धर्मों के आधार पर सहयोग करते हैं जिससे भिन्न-भिन्न वस्तुएं एवं यह वस्तु जगत बना बनता है इसके पीछे कोई ईश्वरीय शक्ति नहीं है कुछ जैन आचार्य ने आत्मा के शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त रूप को ईश्वर की संज्ञा दी है इनकी दृष्टि से ईश्वर संसार का कर्त्ता नहीं,शुद्ध, बुद्ध आत्मा है संभवत: इसी आधार पर तीर्थकरो को भगवान के रूप में जाना जाता है

7.यह वस्तु जगत वास्तविक है– जैन दर्शन समस्त द्रव्यों को अनादि और अनंत मानता है इसकी दृष्टि से द्रव्यों से बना यह जगत वास्तविक है जीव को भी यह द्रव्य मानता हैं इसलिए वह तो वास्तविक है ही

8.यह ब्रह्मांड अनेक द्रव्यों से बना है– जैन दर्शन के अनुसार यह सृष्टि अनेक द्रव्यों से बनी है यह द्रव्य दो प्रकार के होते हैं आस्तिकाय (जीव और अजीव) और आनिस्तिकाय (काल) जैन दर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक जीव (आत्मा) और अजीव (पुद्गल) का अपना-अपना स्वभाव एवं गुणधर्म होता है भिन्न-भिन्न अजीव द्रव्यों के संयोग का नाम बनाना और वियोग का नाम बिगड़ना है विभिन्न प्रकार के जीवधारियों के बारे में जैन दर्शन का मत है कि प्रत्येक जीव (आत्मा) अपने कर्मों के अनुसार अजीव द्रव्यों को धारण करने पर यह तप द्वारा अपने शुद्ध रूप को प्राप्त करता है इसी को जैन दर्शन में कैवल्य (मोक्ष) कहते हैं




जैन दर्शन और शिक्षा (Jain philosophy and education)


जैन दर्शन में द्रव्य की विस्तृत व्याख्या की गई है द्रव्यों के प्रकार एवं गुणों का जितना विशद वर्णन जैन दर्शन में मिलता है उतना अन्यत्र नहीं। आत्मा और काल द्रव्य के जिस स्वरुप एवं गुण धर्म की चर्चा जैन दर्शन में की गई है उस पर वैज्ञानिकों का ध्यान आकृष्ट हो चुका है जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित मनुष्य जीवन के अंतिम उद्देश्य के बारे में लोग एकमत हो या न हो शिक्षा हेतु जैन दर्शन ने शिक्षा को आवश्यक माना है

शिक्षा का संप्रत्यय


जैन दर्शन जीव (आत्मा) और जीवों (पुद्गल) दोनों की स्वतंत्र सत्ता मानता है और यह मानता है कि जीव अपने कर्मों के अनुसार अजीव को धारण कर भिन्न-भिन्न योनियों को धारण करता है जैन दर्शन के अनुसार आत्मा मनुष्य योनि को धारण करने के बाद अपने-अपने शुद्ध, बुद्ध और मुक्त रूप को प्राप्त हो सकती है बशर्ते मनुष्य रत्नत्रय से आत्मा को कर्म शून्य कर सके तब मनुष्य जीवन का यही उद्देश्य होना चाहिए और शिक्षा को उसके इस उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता करनी चाहिए जैन आगमों के अनुसार वास्तविक शिक्षा वह हैं जो मनुष्य को रत्ननत्र की प्राप्ति कराती है जिसकी सहायता से मनुष्य की आत्मा अपने शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त रूप को प्राप्त करती है

 शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Education)


1.सम्यक दर्शन का उद्देश्य– जैन आचार्यों का विश्वास है कि अच्छा भौतिक जीवन जीने एवं आत्मा को कर्मशून्य कर उसे शुद्ध, बुद्ध और मुक्त करने दोनों के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता है कि मनुष्यों में जैन तीर्थकरो, जैन आगम ग्रंथों और जैन आगमों का ज्ञान कराने वाले मुनियों में श्रद्धा हो। अतः शिक्षा का सर्वप्रथम उद्देश्य मनुष्यों में इस श्रद्धा का विकास करना होना चाहिए

2.सम्यक ज्ञान का उद्देश्य– द्रव्य (जीव, अजीव और काल) संबंधी वह ज्ञान जो तीर्थकरो ने दिया है और जो जैन आगमों में संग्रहित है वही सम्यक ज्ञान है जैन दर्शन के अनुसार यह ज्ञान प्रकाश के समान है जो अज्ञान के अंधेरे को दूर करता है इस ज्ञान की प्राप्ति शिक्षा का दूसरा उद्देश्य होना चाहिए

3.सम्यक चरित्र का उद्देश्य– जैन दर्शन इस बात पर बल देता है कि सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान का समाहार सम्यक चरित्र में होना चाहिए अर्थात मनुष्य को उसे अपने विचार, वाणी और व्यवहार में उतारना चाहिए और यह बड़ा कठिन कार्य है इसके लिए जैन आचार्यों की दृष्टि से पांच महाव्रतों (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य) का पालन और चार कषायों (क्रोध, लोभ, मोह एवं अभिमान) का त्याग आवश्यक है अतः शिक्षा द्वारा इस सब का विकास होना चाहिए जैन दर्शन के अनुसार यह शिक्षा का तीसरा और सर्वाधिक महत्व का उद्देश्य है

4.विभिन्न कलाओं में प्रशिक्षण का उद्देश्य– जैन साहित्य में छोटे-बड़े सभी उद्योगों को कला की संज्ञा दी गई है इन कलाओं में कृषि कार्य, सूट कातना, कपड़ा बुनना, मकान बनाना, चटाई बनाना, धातु के बर्तन बनाना, लकड़ी का सामान बनाना आदि अनेक उद्योगों का उल्लेख है सांसारिक व्यक्तियों को अपना जीवन चलाने के लिए इनमें से कुछ न कुछ कार्य अवश्य करना होगा अतः शिक्षा के द्वारा मनुष्य को अपनी योग्यता अनुसार इसी कला उद्योग में निपुण करना चाहिए परंतु जैन आयामों में केवली (मोक्ष के इच्छुक) को इस सब से दूर रहने का सुझाव है

5.परमार्थ भाव के विकास का उद्देश्य– जैन दर्शन व्यष्टि हित के साथ-साथ समष्टि हित का समर्थक है यूं तो सम्यक चरित्र वाला व्यक्ति अपने शुभ, मंगल और कल्याण के समस्त के साथ-साथ समस्त प्राणियों के शुभ, मंगल और कल्याण की बात सोचेगा, कहेगा और करेगा परंतु यहां सांसारिक दृष्टि से भी उसकी आवश्यकता होगी भौतिक जीवन के क्षेत्र में भी मनुष्य एक दूसरे का हित करें और आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी एक दूसरे का हित करे। प्राणी मात्र के शुभ मंगल और कल्याण हेतु कार्य करना ही परमार्थ है शिक्षा द्वारा मनुष्य को में इसका विकास अवश्य करना चाहिए





शिक्षा की पाठ्यचर्या (Education curriculum)


पाठ्यचर्या निर्माण में पांच सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है


  1. छात्र की परिपक्वता का सिद्धांत 
  2. छात्र की क्षमता का सिद्धांत 
  3. छात्र की आयु का सिद्धांत 
  4. क्रमागतता का सिद्धांत 
  5. उपयोगिता का सिद्धांत 


शिक्षण विधि (Teaching method)


1.इंद्रिय अनुभव विधि– इस विधि में इंद्रियों द्वारा अनुभव करके ज्ञान प्राप्त किया जाता है इससे आज की भाषा में प्रत्यक्ष विधि कहते हैं

2.प्रयोग विधि– इस विधि में स्वयं करके सीखा जाता है

3.श्रुति विधि– इस विधि में गुरु से सुनकर ज्ञान प्राप्त किया जाता है आज की स्थिति में गुरु के साथ-साथ रेडियो व टेलीविजन द्वारा भी सुना और सीखा जाता है

4.स्वाध्याय विधि– इस विधि में पाठ्य सामग्री से संबंधित ग्रंथों का अध्ययन करके सीखा जाता है इसमें स्वयं अध्ययन करना रहता है

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