श्री अरविंद घोष शिक्षा, पाठ्यक्रम, उद्देश्य

जीवन परिचय (Life Introduction)




श्री अरविंद का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता के एक संपन्न परिवार में हुआ था इनके पिता डॉ कृष्णधन घोष तथा माता श्रीमती स्वर्णमाला देवी थी इनके पिता श्री कृष्णा धनघोष कोलकाता के प्रसिद्ध डॉक्टर थे और पाश्चात्य संस्कृति के प्रशंसक थे इनके घर में नौकर तक अंग्रेजी भाषा बोलते थे परंतु डॉक्टर साहब बड़े दयालु प्रवृत्ति के थे ऐसे परिवार में अरविंद का पालन पोषण हुआ श्री अरविंद की आरंभिक शिक्षा दार्जिलिंग में लोरेटो कॉन्वेंट में हुई 7 वर्ष की अवस्था में ही उन्हें अध्ययन के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया वह लंदन और कैंब्रिज में शिक्षा ग्रहण करने हेतु 14 वर्ष तक रहे अंग्रेजी के अतिरिक्त उन्होंने फ्रेंच, ग्रीक, इटालियन और लैट्रिन भाषाओं का अध्ययन किया पिता की इच्छा पर उन्होंने इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा भी 1890 में पास की किंतु अंग्रेजी दासता के अधीन सेवाकार्य न करने की इच्छा से उन्होंने घुड़सवारी की परीक्षा नहीं दी अतः उन्हें असफल घोषित कर दिया गया सन 1901 में उनका विवाह मृणालिनी देवी से हुआ 1906 में वैरीसाल में राजनीतिक सम्मेलन में भी सम्मिलित हुए यद्यपि राजनीति के क्षेत्र में वे केवल 4 वर्ष ही रहे श्री अरविंद ने स्वराज्य को भारत का लक्ष्य माना।



श्री अरविंद गीता के अनन्य भक्त थे उन्होंने गीता के कर्म योग एवं ध्यान योग की वैज्ञानिक व्याख्या की इनकी दृष्टि से मानव एवं दिव्य शक्ति का संयोग ही योग है दूसरे शब्दों में योग वह साधन है जिसके जिससे मानव दिव्य शक्ति की अनुभूति करता है श्री अरविंद मानव को योग द्वारा आत्मतत्व की अनुभूति कर ब्रह्मा में लीन होने का उपदेश नहीं देते थे यह तो इसके द्वारा संपूर्ण मानव जाति को अज्ञान, अंधकार और मृत्यु से ज्ञान, प्रकाश और अमृत्व की ओर ले जाना चाहते थे इसीलिए इनकी विचारधारा को सर्वांग योग दर्शन कहा जाता है




 शिक्षा दर्शन (Philosophy Of Eductaion)


श्री अरविंद का शिक्षा दर्शन आध्यात्मिक साधना, ब्रह्मचर्य और योग पर आधारित है उनका विश्वास है कि इस प्रकार की शिक्षा से मानव का पूर्ण विकास किया जा सकता है
श्री अरविंद का कथन है― "सच्ची और वास्तविक शिक्षा केवल वही है जो मानव की अंतर्निहित समस्त शक्तियों को इस प्रकार विकसित करती है कि वह उन से पूर्ण रुप से लाभान्वित होता है"
श्री अरविंद घोष के अनुसार शिक्षा दर्शन निम्नलिखित है

1.चित्त– यह मस्तिष्क या अंतःकरण की प्रथम सतह है जिस पर तीनों सतहें आधारित हैं बालक जो कुछ भी पढ़ लिखकर याद करता है वह चित्त में एकत्रित होता है चित्त के लिए वे इसी प्रकार के प्रशिक्षण को आवश्यक नहीं मानते।

2.मानस– मस्तिष्क की दूसरी सतह हैं– मानस जिसे अरविंद असली मस्तिष्क मानते हैं बालक को कुछ भी अपनी ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण करता है उसे प्रत्यय के रूप में मानस स्वीकार करता है और कुछ विचारों के रूप में बदल देता है अतः श्री अरविंद के ज्ञानेंद्रियों, यथा– शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के अनुभव करने वाली शक्तियों के प्रशिक्षण को आवश्यक माना है

3.बुद्धि– यह मस्तिष्क की तीसरी सतह हैं जिसमें विचार करने की शक्ति होती है मस्तिष्क में जो विचार पहुंचते हैं उन्हें सुव्यवस्थित करना ऐसी बुद्धि का काम है यह शिक्षाशास्त्रियों के लिए बहुत आवश्यक है

4.सत्य के प्रति अंतर्दृष्टि अथवा चेतना की शक्ति– इसके ज्ञान का प्रकाश इससे ज्ञान का प्रकाश मिलता है यह विरले मनुष्य के पास है लेकिन बहुत-बहुत के पास अपूर्ण और क्षणिक प्रकाश के रूप में।
श्री अरविंद के विचारों में मनुष्य की यह शक्ति अब भी क्रमिक विकास की अवस्था में है और अभी पूर्णता को प्राप्त नहीं हुई है समाज तथा देश के उत्थान के लिए इसकी बहुत आवश्यकता है शिक्षकों को इस ओर भी छात्रों को प्रोत्साहन देना चाहिए।




सर्वांग शिक्षा के उद्देश्य (Aims Of Integral Education)


1.भौतिक विकास का उद्देश्य– इस जगत एवं मानव विकास का प्रथम सोपान द्रव्य जड़ है श्री अरविंद शिक्षा द्वारा मनुष्य को सर्वप्रथम पंच महाभूतों से बनी वस्तु जगत एवं उसके स्वयं के भौतिक स्वरूप के बारे में ज्ञान करा देना चाहते थे और उसे अपने शरीर की रक्षा एवं विकास की क्रियाओं में प्रशिक्षित करा देना चाहते थे इसे ही दूसरे शब्दों में शारीरिक विकास का उद्देश्य कहते हैं

2.अन्तरात्मिक विकास का उद्देश्य– अतिमानस अर्थात मनुष्य का अंतःकरण मानव विकास का सोपान है  श्री अरविंद ने इस अंत:करण के चार स्तर बताए हैं– चित्, बुद्धि, मन और अंतर्ज्ञान। श्री अरविंद ने अनुभव किया था कि इस स्तर पर पहुंचकर मनुष्य बिना ज्ञानेंद्रियों का प्रयोग किए सब कुछ देख समझ लेता है सत् का साक्षात्कार होता ही इस अंतः करण से है अतः शिक्षा द्वारा अनंता करण का विकास किया जाना चाहिए इस विकास के लिए भी श्री अरविंद ने योग विधि को आवश्यक माना है

3.मस्तिष्क एवं आत्मा की सबलता– श्री अरविंद के अनुसार, शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मानव की आंतरिक शक्तियों का विकास है इसीलिए वे आध्यात्मिक शिक्षा पर अधिक बल देते हैं जिससे मस्तिष्क को और आत्मा को बल प्राप्त हो

4 शारीरिक विकास और शुद्धि– अरविंद के अनुसार शिक्षा का महत्वपूर्ण एवं सर्वप्रथम उद्देश्य बालक का शारीरिक विकास करना है उन्होंने शारीरिक विकास में शारीरिक शुद्धि को भी सम्मिलित किया है क्योंकि उनका मानना था कि शरीर के उचित विकास एवं इसकी शुद्धि के बिना मानव का आध्यात्मिक विकास संभव नहीं है उनका कथन था कि शरीर के माध्यम से ही धार्मिक एवं आध्यात्मिक जीवन की प्राप्ति होती है इसीलिए शरीर स्वस्थ तथा पवित्र होना चाहिए

5.ज्ञानेंद्रियों की शिक्षा– श्री अरविंद ने पांचों ज्ञानेंद्रियों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) के प्रशिक्षण पर अधिक बल दिया है उनके अनुसार शिक्षक का प्रथम कर्तव्य है कि वह बालक को इस प्रकार का शिक्षण दें जिससे वह अपनी ज्ञानेंद्रियों का उचित प्रयोग कर सकें

6.वास्तविकता का ज्ञान– बालक को अहम भाव से ऊपर उठकर अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकने की शिक्षा देना ही महान लक्ष्य है

7.आध्यात्मिक विकास – आदर्शवादी होने के नाते श्री अरविंद ने शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास करना बतलाया है उनका कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति मैं कुछ दैवीय अंश होता है शिक्षा का उद्देश्य इसी दैवीय अंश को खोजना, विकसित करना तथा पूर्णता की ओर ले जाना है

8.चेतना की उत्पत्ति– श्री अरविंद के विचारों से प्रत्येक प्राणी में एक दैवीय शक्ति विद्यमान है इसी दैवीय शक्ति को पहचानने की की चेतना उत्पन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य है

9.व्यक्तित्व का समन्वित विकास– समन्वित व्यक्तित्व वह है जिसमें मस्तिष्क का पूर्ण विकास हो गया हो। सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क और आत्म चेतना का ज्ञान देकर उसे जीवन में प्रयोग करना ही शिक्षा का उद्देश्य है।





 पाठ्यक्रम (Curriculum)


श्री अरविंद के अनुसार पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो बालकों के भौतिक, नैतिक ,मानसिक और आध्यात्मिक विकास में सहायक सिद्ध हो अतः उनके पाठ्यक्रम के निर्माण हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए


  1. पाठ्यक्रम रोचक हो 
  2. पाठ्यक्रम में उन सभी विषयों का समावेश किया जाए जिनसे बालों को का भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में पूर्ण विकास हो
  3. पाठ्यक्रम में वे सभी विषय सम्मिलित किए जाने चाहिए जिनमें जीवन की क्रियाशीलता के गुण मौजूद हैं 
  4. पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिसके द्वारा विश्व ज्ञान में बालक की रुचि उत्पन्न हो सके 

श्री अरविंद के अनुसार या पाठ्यचर्या को निम्नलिखित रुप से क्रम बंद कर सकते हैं

भौतिक विषय– मातृभाषा एवं राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्व की भाषाएं, इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, गणित, विज्ञान, मनोविज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, कृषि, उद्योग, वाणिज्य और कला

भौतिक क्रियाएं– खेलकूद, व्यायाम, उत्पादन कार्य, शिल्प

अध्यात्मिक विषय– वेद, उपनिषद, गीता, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, विभिन्न देशों के धर्म एवं दर्शन

आध्यात्मिक क्रियाएं– भजन, कीर्तन, ध्यान एवं योग

परंतु इन सब विषयों का अध्ययन एवं क्रियाओं का प्रशिक्षण एक दिन में नहीं किया जाएगा श्री अरविंद आश्रम में उसे निम्नलिखित रुप से रखा गया है

1.प्राथमिक स्तर– मातृभाषा, अंग्रेजी, फ्रेंच, सामान्य विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, गणित व चित्रकला

2.माध्यमिक व उच्च माध्यमिक स्तर– मातृभाषा, अंग्रेजी, फ्रेंच सामाजिक अध्ययन, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, गणित और चित्रकला

3.विश्वविद्यालय स्तर– भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन मनोविज्ञान समाजशास्त्र, सभ्यता का इतिहास, अंग्रेजी, साहित्य, गणित भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, विज्ञान का इतिहास, फ्रेंच साहित्य, अंतरराष्ट्रीय संबंध, विज्ञान और विश्व एकीकरण

4.व्यवसायिक शिक्षा– चित्रकारी, फोटोग्राफी, सिलाई, शिल्पकार संबंधी ड्राइंग, कुटीर उद्योग, सामान्य मैकेनिकल तथा इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग, भारतीय तथा यूरोपीय संगीत, अभिनय तथा नृत्य

शिक्षण विधियां (Teaching Method)


  1. बालक की रुचियों का अध्ययन 
  2. बालक के साथ प्रेम व सहानुभूति का प्रदर्शन 
  3. शिक्षण प्रक्रिया में बालक का सहयोग प्राप्त करना 
  4. बालक को स्वतंत्रता प्रदान करना 
  5. स्वयं करके सीखना 
  6. बालक द्वारा किए जाने वाले प्रयासों व अनुभवों को प्रोत्साहन 
  7. बालक की शक्तियों का विषयों की प्रकृति के अनुसार प्रयोग 
  8. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा