मानसिक स्वास्थ्य, कारक
मानसिक स्वास्थ्य(Mental health)
मानसिक श्रम करने के लिए तथा भौतिक एवं मानसिक परिस्थितियों से समायोजन स्थापित करने के लिए व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य का अच्छा होना आवश्यक है। मानसिक स्वास्थ्य का सम्बन्ध मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान से है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के अन्तर्गत मानसिक स्वास्थ्य का संरक्षण, मानसिक रोगों के रोकथाम एवं प्रारम्भिक उपचार आदि का अध्ययन करते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ स्पष्ट करते हुए हैडफील्ड महोदय ने लिखा है-"व्यक्ति को अन्दर अनेक इच्छाएँ, रुचियाँ, उत्तेजक धारणाएँ एवं व्यवहार प्रक्रियाएँ हैं। इनमें से कुछ जन्मजात होती हैं और कुछ को वह परिवेश से अर्जित करता है। इन सबके सुसंगठित होकर किसी व्यापक उद्देश्य की ओर उन्मुख होने पर ही व्यक्तित्व का उचित विकास होता है।"
प्रायः जब हम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं, जिसका शारीरिक गठन अच्छा होता है, समाज में मान-सम्मान होता है और आर्थिक रूप से भी वह सम्पन्न होता है, तो उसे मानसिक रूप से स्वस्थ समझने की भारी भूल करते हैं। यद्यपि निर्विवाद रूप से ये गुण मानसिक स्वास्थ्य के ही अंग हैं, किन्तु एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह आवश्यक नहीं कि सुगठित शरीर वाला, कार्य-कुशल और सम्पन्न व्यक्ति अथवा उच्च चरित्र वाला व्यक्ति मानसिक रूप से भी स्वस्थ हो। ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो अपने कार्य में कुशल होते हैं, आर्थिक रूप में भी सम्पन्न होते हैं और उन्हें कोई शारीरिक कष्ट भी नहीं होता अर्थात् हर तरफ से वे जीवन में सफल से लगते हैं। किन्तु वास्तव में ऐसे लोग भी सदैव मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं होते, क्योंकि उन्हें भी नाना प्रकार की चिन्ताओं, दुःखों और मानसिक द्वन्द्वों का सामना करना पड़ता है। वे अपने संवेगों और इच्छाओं आदि पर नियन्त्रण नहीं रख पाते और विभिन्न मानसिक विकारों के शिकार रहते हैं।
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति के निम्नलिखित प्रमुख लक्षण प्रस्तुत किये जाते हैं
1. मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति में नवीन सामाजिक परिस्थितियों के साथ शीघ्र हो समायोजन स्थापित कर लेने की शक्ति निहित होती है।
2. वह अपने लक्ष्य की पूर्ति में सफलता प्राप्त करता है।
3. उसका व्यक्तित्व सन्तुलित एवं सर्वांगीण विकास पूर्ण होता है।
4. वह अपने व्यवसाय से सन्तुष्ट रहता है।
5. उनकी इच्छाशक्ति दृढ़ होती है और समस्त कार्य आत्मविश्वास के साथ करते हैं।
6. उसमें प्रचुर मात्रा में सामाजिकता की भावना दिखायी पड़ती है।
7. मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपनी इच्छाशक्ति और संवेगों को सुनियन्त्रित रखता है।
8. वह अपने समाज तथा समुदाय के नियमों, रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं के अनुसार ही कार्य करता है।
मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting mental health)
मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारकों में निम्न की भूमिका महत्त्वपूर्ण है
1. आनुवंशिक कारण- मानसिक स्वास्थ्य में आनुवंशिकता को महत्त्वपूर्ण मान जाता है। विद्वानों में मानसिक दुर्बलता को आनुवंशिक कारणों से सम्बद्ध बताया है। यद्यपि सम्बन्ध में सभी विद्वान एकमत नहीं हैं।
2. सामाजिक कारण- सामाजिक कारणों को निम्न तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है
(क) परिवार से सम्बन्धित कारण- इसके अन्तर्गत निम्न कारक महत्त्वपूर्ण माने गये हैं-
(i) माता-पिता की अत्यधिक ममता का प्रभाव बालक में आत्मनिर्भरता की भावना को विकसित नहीं होने देता। जिससे कालान्तर में ऐसे बालकों में चिन्ता, असन्तोष आदि की भावना फैल जाती है, उनमें भावात्मक निर्बलता आ जाती है और उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है।
(ii) माता-पिता घृणात्मक प्रवृत्ति से बालकों में होनता ग्रन्थि विकसित हो जाती है और वे अपने को अयोग्य समझने लगते हैं। इससे बालकों में बदला लेने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है।
(iii) माता-पिता द्वारा किये जाने वाले पक्षपात के कारण बालकों में ईर्ष्या, द्वेष, घृणा और बदला लेने की प्रवृत्ति विकसित होती है।
(iv) माता-पिता के अत्यधिक ऊँचे नैतिक आदर्शों से बालक प्रभावित होता है। वह दबाव में कामचोरी करने लगता है। इसमें आत्महीनता की भावना पैदा होती है।
(v) परिवार की निर्धनता का प्रभाव- बचपन में बच्चों की निर्धनता उनके विकास को कुण्ठित कर देती है। इससे बच्चों में अभावग्रस्त व तनाव के कारण उनके व्यक्तित्व में व्यग्रता एवं कठोरता उत्पन्न हो जाती है।
(ख) विद्यालय से सम्बन्धित कारक- बालक के मानसिक स्वास्थ्य को करने वाले विद्यालय से सम्बन्धित कारक निम्न है
(i) अनुपयुक्त पाठ्यक्रम
(ii) अनुपयुक्त शिक्षण पद्धतियाँ
(iii) कक्षा के कठोर नियन्त्रण का प्रभाव
(iv) शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रभाव।
(ग) समाज से सम्बन्धित कारक- बालक के मानसिक विकास पर उसके समाज का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। जो समाज या समुदाय असंगठित व विच्छिन्न होते हैं, उनमें बालकों का मानसिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं रह पाता है। इस प्रकार के समाज में सदैव कलह, का वातावरण मौजूद रहता है। इस प्रकार के समाज में पलने वाले बालकों में संवेगात्मक अस्थिरता, ईर्ष्या, द्वेष, कलह और दुश्चारित्रता आदि दुर्गुण स्थान बना लेते हैं, जो बालकों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं।
3. मनोवैज्ञानिक कारण- निम्नलिखित मनोवैज्ञानिक कारक बालकों में प्रत्यक्ष रूप से मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न करते हैं। ये कारण निम्नलिखित है-
(i) तीव्र मानसिक संघर्ष- सामान्यत: हर व्यक्ति के जीवन में संघर्षपूर्ण स्थितियाँ आती है। जबकि वह दो सामान्य लक्ष्यों में से चुनाव करने में मानसिक कठिनाई का अनुभव करता है। किन्तु यही संघर्ष जब स्थायी रूप ले लेता है, तो व्यक्ति में मानसिक विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
(ii) तीव्र संवेगात्मक तनाव- जब व्यक्ति अपने संवेगों पर नियन्त्रण नहीं कर पाता और उनमें तीव्रता उत्पन्न हो जाती है, तो उसका मानसिक सन्तुलन गड़बड़ हो जाता है। धीरे-धीरे वह स्थायी रूप धारण कर लेता है, जिससे व्यक्ति में मानसिक विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
(iii) दमित भावना ग्रन्थियाँ- विभिन्न परिस्थितियों के फलस्वरूप व्यक्ति में उपसे सम्बन्धित भावना ग्रन्थियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, किन्तु व्यक्ति अपने को समायोजित दिखाने के लिए उनका दमन कर देता है। भावना ग्रन्थियाँ दमन करने से खत्म नहीं होती। प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से वे प्रकट होकर मानसिक अस्वस्थता को बढ़ाती हैं।
(iv) हीनता की भावना ग्रन्थि- एडलर के अनुसार मानसिक विकारों की उत्पत्ति हीनता की भावना ग्रन्थियों के फलस्वरूप ही होती है। उपर्युक्त कारकों के अतिरिक्त अन्य बहुत ऐसे कारण हैं, जो बालकों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने में अध्यापक की भूमिका (Role of teacher in maintaining mental health)
बालकों के माता-पिता विद्यालय एवं उसे स्वयं को अपनी मानसिक अस्वस्थता के रोकथाम की उपर्युक्त विधियों का प्रयोग करना चाहिए, अर्थात् जहाँ तक हो सके ऐसा अवसर ही नहीं आने देना चाहिए कि बालक का मानसिक स्वास्थ्य खराब हो। किन्तु यदि वे किसी प्रकार के मानसिक रोग से ग्रसित हो गये तो शिक्षकों द्वारा उनका पूर्ण निराकरण कठिन है। उसके लिए मनोचिकित्सक की आवश्यकता पड़ेगी। नीचे कुछ मनोविज्ञान उपचारात्मक विधियाँ प्रस्तुत की जा रही है, जिनका प्रयोग कुशल शिक्षक साधारण मानसिक रोगों के लिए कर सकते है
1. सुझाव- रोगी किसी भी प्रकार का हो शारीरिक अथवा मानसिक उसका आधा रोग तभी दूर हो जाता है, जबकि उसमें आत्मविश्वास उत्पन्न हो जाये या करा दिया जाये कि अय वह अच्छा हो रहा है। व्यक्ति को संवेगात्मक, तनावपूर्ण एवं संघर्ष युक्त समस्याओं को सुलझाने से सम्बन्धित सुझाव देने से व्यक्ति में विश्वास या आस्था ही नहीं उत्पन्न होती बल्कि उसमें आत्म निर्णय एवं आत्म-निर्देश की क्षमता भी आती है।
2. पुनर्शिक्षण- पुनशिक्षण का अर्थ है व्यक्ति को उसकी गलतियों तथा उनके बुरे परिणामों से अवगत कराना तथा उसे जीवन के आदशों, नियम, मान्यताओं, दृष्टिकोणों आदि में परिवर्तन करने में सहायता प्रदान करना, जिससे कि वह अपने को वातावरण के साथ भलीभांति अभियोजित कर पाने में समर्थ हो सके। पुनशिक्षण में मनोविकृत व्यक्ति को उचित परामर्श और निर्देशन आदि देकर उसमें आत्मविश्वास उत्पन्न कराने का प्रयास किया जाता है तथा व्यवहारों और संवेगों पर नियन्त्रण करना सिखाया जाता है।
3. युक्तिपूर्ण तर्क- मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति के समक्ष विभिन्न प्रकार के युक्तिपूर्ण तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं, जिससे कि वह अपनी समस्याओं के सम्बन्ध में अन्तर्दृष्टि अपना सके और उसको स्वयं ही सुचारू रूप से सुलझा सके।
4. सामूहिक चिकित्सा- सामूहिक चिकित्सा में दस से तीस तक मानसिक अस्वस्थ व्यक्तियों को एक साथ रहने, उठने बैठने, बोलने चालने आदि का अवसर प्रदान किया जाता है। इस प्रकार वे एक-दूसरे के व्यवहार से परिचित हो जाते हैं और एक-दूसरे के समस्याओं की जानकारी प्राप्त करते हैं तथा उन पर विचार-विमर्श करते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनमें आत्म-विश्वास जाग्रत होता है, सामाजिक असुरक्षा की भावना एवं हीनता की भावना समाप्त होने लगती है और उसका मानसिक स्वास्थ्य सुधरने लगता है।
5. मनो-अभिनय- जैसा कि हमें यह ज्ञात है कि मानसिक रोगों के मूल में व्यक्ति की बहुत-सी दमित इच्छाएँ एवं अव्यक्त संवेग होते हैं और यदि इन्हें व्यक्त होने का अवसर प्रदान किया जाये तो मानसिक स्वास्थ्य में अच्छा सुधार हो सकता है। मनो अभिनय में व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार भूमिका चुनकर अभिनय करने का अवसर दिया जाता है। इसमें उसकी बहुत-सी दमित इच्छाओं और संवेगों का प्रकटीकरण हो जाता है, वे अपनी व्यवहार सम्बन्धी समस्याओं को व्यक्त करते हैं। व्यक्त करने से इन पर कुछ नियन्त्रण हो जाता है। कुछ दिनों तक इसी क्रिया का पुनरावर्तन करते रहने से उसके मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होने लगता है।
6. व्यावसायिक चिकित्सा- इस विधि के द्वारा व्यक्ति को किसी-न-किसी प्रकार के कार्य चटाई बुनना, कुर्सी बुनना, लकड़ी का काम, कपड़ा बुनना, सूत कातना आदि में लगा दिया जाता है। काम में लगकर वह अपनी मानसिक चिन्ताओं को भूलने लगता है। उसमें आत्म-सम्मान की भावना जाग्रत होती है, हीनता की भावना ग्रन्थि समाप्त होने लगती है और जीवन सामान्य एवं उपयोगी मालूम पड़ने लगता है। इस प्रकार उसका मानसिक स्वास्थ्य सुधरने लगता है।
7. क्रीड़ा चिकित्सा- इस विधि में बालकों को विभिन्न प्रकार के खेल खेलने के अवसर प्रदान किये जाते हैं। खेल के समय उनके दमित संवेगों को प्रकट होने का अवसर प्राप्त होता है, भावना ग्रन्थियों के सुलझने का अवसर प्राप्त होता है, उनकी पाशविक प्रवृत्तियों का रेचन होता है, मानसिक चिन्ताएँ एवं संघर्ष दूर हो जाते हैं। इतना ही नहीं खेल द्वारा उनकी अतृप्त इच्छाओं की तृप्ति हो जाती है। इस प्रकार उनके समायोजन में सहायता मिलती है और मानसिक अस्वस्थता दूर होने लगती है।
8. परिवेश में परिवर्तन- कभी-कभी बालक के मानसिक अस्वास्थ्य का कारण एक विशेष परिवेश होता है। ऐसी स्थिति में उसके परिवेश में परिवर्तन करके उसकी समस्या को दूर किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक अपने पारिवारिक परिवेश के कारण मानसिक विकासग्रस्त हो गया है तो उसे छात्रावास या किसी अन्य परिवेश में रखने से उसकी समस्या दूर हो सकती है और वह पुन: सामान्य हालत में लौट सकता है।
9. स्थानापन्न क्रियाओं के माध्यम से शोधन- व्यक्ति की संवेगात्मक उत्तेजनाओं का दमन करके उनका किसी स्थानापन्न क्रिया के माध्यम से संशोधन करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस विधि में व्यक्ति की अनुपयुक्त क्रियाओं को किसी उचित एवं अहानिकर क्रिया की ओर मोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक काम सम्बन्धी कोई असामाजिक क्रिया करते हैं तो उसे संगीत, कला, अभिनय अथवा किसी अन्य रचनात्मक कार्यों में व्यस्त किया जा सकता है।
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