मापन एवं मूल्यांकन के महत्त्व, आवश्कता, कार्यों और अंतर

 मापन एवं मूल्यांकन (Measurement and Evaluation)



हमारे जीवन में समस्याओं के सम्बन्ध में सूचना की पर्याप्तता, संदर्भता तथा सुगमता को सुनिश्चित करने में के लिए ही व्यावहारिक विज्ञानों में मापन तथा मूल्यांकन की विभिन्न विधियों के प्रयोग की आवश्यकता होती है। इसलिए सर्वप्रथम वैज्ञानिक ढंग से मापन प्रक्रिया का उपयोग 19वीं शताब्दी से प्रारम्भ होना माना जा सकता है।

वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों में अनेक ऐसे दृष्टान्त देखने को मिलते हैं, जो मापन प्रक्रिया के उपयोग को स्पष्ट रूप से इंगित करते हैं। यक्ष-युधिष्ठिर संवाद, बृहस्पति- इन्द्र वार्तालाप, यम-नचिकेता संवाद, पहेलियों व वाक्य पूर्तियों आदि से व्यक्तियों को योग्यताओं को निर्धारण के अनेक सन्दर्भ प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में मिलते हैं। ग्रीक, यूनानी व आंग्ल साहित्य में भी इसी प्रकार के अनेक सन्दर्भ दृष्टिगोचर होते हैं, जो मनोवैज्ञानिक योग्यताओं के परीक्षण की ओर संकेत करते हैं। प्राचीन तथा मध्यकाल की शिक्षा संस्थाओं में छात्रों के ज्ञान, बोध एवं कौशल का परीक्षण प्रायः आन्तरिक अध्यापकों के द्वारा मौखिक प्रश्न पूछकर किया जाता था। राजदरबारों में भी राजा अथवा राजपण्डितों के द्वारा प्रश्न पूछकर अथवा शास्त्रार्थ करके अपने ज्ञान का प्रदर्शन तथा दूसरों के ज्ञान का परीक्षण किया जाता था। प्राचीनकाल में प्रयुक्त इन मापन विधियों का कोई सुस्पष्ट व वैज्ञानिक आधार न होते हुए भी यह कहना उचित ही होगा कि उनमें पर्याप्त तर्कसंगतता विद्यमान थी। व्यक्तियों के बौद्धिक तथा अन्य मनोवैज्ञानिक गुणों का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही प्रारम्भ हो सका। ऐस्क्यूरल तथा सीगुइन नामक दो फ्रांसीसी मनोवैज्ञानिकों ने 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मानसिक योग्यता के आधार पर व्यक्तिगत विभिन्नताओं को अध्ययन करने का प्रयास किया। इन दोनों फ्रांसीसी मनोवैज्ञानिकों के द्वारा बुद्धि दौर्बल्य पर किये गये अध्ययन के उपरान्त अन्य अनेक मनोवैज्ञानिकों ने मापन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। वुण्ड ने प्रत्यक्ष निरीक्षण विधि की उपेक्षा करके मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के प्रयोग को बढ़ावा दिया। फ्रांसिस गाल्टन ने अपने आनुवंशिक अनुसन्धानों में व्यक्तिगत विशेषताओं के मापन की आवश्यकताओं का अनुभव करते हुए दृष्टि श्रवण, स्नायुविक प्रतिक्रिया काल आदि से सम्बन्धित अनेक परीक्षण कार्य सम्पादित किये। जे. एम कैटल ने भी मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के विकास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जेस्ट्रो, गिलबर्ट, क्रेपलिन, एविंगहास आदि मनोवैज्ञानिकों ने अनेक मनोवैज्ञानिक परीक्षणों की रचना करके इन्हें अपने-अपने अध्ययनों में प्रयुक्त किया।

इन सबके बावजूद 19वीं शताब्दी में मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का विकास अपनी प्रारम्भिक अवस्था तक ही सीमित था। बीसवीं शताब्दी में मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के विकास का कार्य अपनी चरम सीमा पर पहुँचा। अल्फ्रेड बिने के द्वारा सन् 1905 में तैयार किये गये बुद्धि परीक्षण ने बुद्धि मापन के प्रयासों को एक नया आयाम दिया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान आर्मी अल्फा परीक्षण तथा आर्मी वोटा परीक्षण नामक सामूहिक बुद्धि परीक्षणों की रचना हुई। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विश्व के लगभग सभी देशों में बुद्धि सम्प्राप्ति, अभिवृत्ति, अभिरुचि व्यक्तित्व आदि के मापन के लिए अनेक वस्तुनिष्ठ परीक्षणों की रचना अथवा अनुशीलन किया गया। इसी दौरान मापन से सम्बनिधत सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि के विकास तथा मापन उपकरणों की विशेषताओं को स्पष्ट करने एवं परीक्षणों के प्रमापोकरण की दिशा में भी पर्याप्त कार्य किया गया।

मानसिक, सामाजिक एवं शारीरिक योग्यताओं तथा विभिन्न व्यक्तिगत विभिन्नताओं का मापन भारतवर्ष में प्राचीनकाल से किया जा रहा है। परन्तु आधुनिक समय में अपने देश में मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के निर्माण का समय सन् 1922 में एफ. जी. कॉलेज, लाहौर के प्राचार्य सी. एच. राईस के द्वारा बुद्धि का मापन करने वाली बिने मापनी का हिन्दी में अनुशीलन करने से प्रारम्भ हुआ था। राईस के इस सराहनीय प्रवास के उपरान्त अनेक भारतीय मनोवैज्ञानिकों तथा शिक्षाशास्त्रियों के द्वारा विदेशी परीक्षणों का अनुशीलन करने एवं नये परीक्षण बनाने का सिलसिला भी प्रारम्भ हो गया। परन्तु स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में उपलब्ध अधिकांश परीक्षण वस्तुतः विदेशों में निर्मित परीक्षणों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद अथवा सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की दृष्टि से किये गये अनुशीलन मात्र ही थे। उस समय तक भारतवर्ष में मनोवैज्ञानिक प्रत्ययों के मापन के लिए मौलिक परीक्षणों के निर्माण की दिशा में कोई विशेष सराहनीय कार्य नहीं हो सका था। स्वतन्त्रता के उपरान्त भारतवर्ष में मौलिक मनोवैज्ञानिक परीक्षणों की दिशा में भी सार्थक प्रयास हुए। इसके परिणामस्वरूप शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र आदि के क्षेत्र में तेजी से सम्पादित हो रहे अनुसन्धान अध्ययनों के लिए आवश्यक मापन प्रक्रिया के विकास तथा परीक्षण के निर्माण को एक नवीन दिशा तथा गति मिल सकी है।


मापन तथा मूल्यांकन का महत्त्व (Importance of Measurement and Evaluation)

शिक्षा प्रक्रिया से सम्बन्धित विभिन्न व्यक्तियों विशेषकर छात्रों, अध्यापकों अभिभावकों प्रशासकों तथा समाज के लिए मापन तथा मूल्यांकन का अत्यन्त महत्त्व है। मापन तथा मूल्यांकन के द्वारा छात्रों को अपनी शैक्षिक प्रगति का ज्ञान होता है। इससे उनमें प्रेरणा, आत्मसंतोष, आत्मविश्वास, आगे बढ़ने की खमता व ललक उत्पन्न होती है तथा साथ-साथ उन्हें अपनी कमियों की जानकरी भी मिल जाती है, जो उन्हें भविष्य में परिश्रम करने की प्रेरणा व सही दिशा प्रदान करती है। मापन व मूल्यांकन का अध्यापकों के लिए भी अत्यन्त महत्त्व है। इसके द्वारा अध्यापकगण पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि, पाठ योजना, शिक्षण सामग्री आदि की प्रभावशीलता जानते हैं तथा समय-समय पर उनमें आवश्यक संशोधन कर सकते हैं। मापन व मूल्यांकन की सहायता के अभिभावकवृन्द न केवल अपने बच्चों की शैक्षिक प्रगति का जानते हैं वरन् उनकी रुचि, योग्यता, क्षमता, व्यक्तित्व, सामर्थ्य, कमियों आदि को पहचान कर उन्हें उचित मार्ग निर्देश प्रदान कर सकते हैं। शिक्षा प्रशासक तथा नीति निर्धारक भी मापन व मूल्यांकन के परिणामों का उपयोग शैक्षिक प्रशासन की व्यवस्था तथा नीति निर्धारण में कर सकते हैं। व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की उन्नति के लिए शिक्षा में सुधार का सतत प्रयास करना आवश्यक है। मापन तथा मूल्यांकन शिक्षा के क्षेत्र में सुधार तथा गुणवत्ता उन्नयन में सहायक होता है। संक्षेप में मापन व मूल्यांकन के महत्त्व को अग्रांकित बिन्दुओं से व्यक्त किया जा सकता है


(1) मापन तथा मूल्यांकन उचित शैक्षिक निर्णय लेने के लिए आवश्यक है।

(2) मापन तथा मूल्यांकन से शिक्षाशास्त्री, प्रशासक, अध्यापक, छात्र तथा अभिभावक उद्देश्यों की प्राप्ति की सीमा को जाने सकते हैं।

(3) मापन तथा मूल्यांकन शिक्षक की प्रभावशीलता को इंगित करता है। 

(4) मापन तथा मूल्यांकन शिक्षण के उद्देश्यों को स्पष्ट करता है।

(5) मापन तथा मूल्यांकन छात्रों को अध्ययन के लिए प्रोत्साहित करता है।

(6) मापन तथा मूल्यांकन के आधार पर पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियाँ, सहायक सामग्री आदि में आवश्यक सुधार किया जा सकता है।

(7) मापन तथा मूल्यांकन कक्षा शिक्षण में सुधार लाता है। अध्यापक को अपनी कमी ज्ञात हो जाती है जिससे वह अपने शिक्षण को अधिक सुसंगठित कर लेता है। 

(8) मापन तथा मूल्यांकन के आधार पर छात्रों को शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन व परामर्श दिया जा सकता है।

(9) मापन तथा मूल्यांकन से छात्रों की रुचियों, अभिरुचियों, कुशलताओं, योग्यताओं, दृष्टिकोणों एवं व्यवहारों की जाँच का ज्ञान सम्भव है।

(10) मापन तथा मूल्यांकन से विभिन्न कार्यक्रमों की उपयोगिता का ज्ञान किया जा सकता शैक्षिक मापन तथा मूल्यांकन के उद्देश्य है।

शैक्षिक मापन तथा मूल्यांकन के प्रमुख उद्देश्य (Main Objectives of Educational Measurement and Evaluation)

शैक्षिक मापन तथा मूल्यांकन के प्रमुख उद्देश्यों को संक्षेप में निम्नवत् ढंग से सूचीबद्ध किया जा सकता है


(1) छात्रों की वृद्धि तथा विकास में सहायता करना। 

(2) छात्रों द्वारा अर्जित ज्ञान की जाँच करना।

(3) छात्रों की वृद्धि तथा विकास में उत्पन्न अवरोधों को जानना।

(4) छात्रों की शैक्षिक प्रगति के बाधक तत्त्वों को जानना।

(5) छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नताओं की जानकारी करना।

(6) छात्रों में प्रतियोगिता की भावना विकसित करना ।

(7) छात्रों की कमियों व कठिनाइयों को जानना व उनका निवारण करना।

(8) छात्रों को अधिगम के लिए प्रेरित करना।

(9) अध्यापकों की शिक्षण प्रभावशाली को ज्ञात करना। 

(10) विद्यालयों में कक्षा शिक्षण में सुधार लाना।

(11) पाठ्यक्रम में सुधार के लिए आधार तैयार करना।

(12) शिक्षण विधियों तथा सहायक सामग्री की उपादेयता को ज्ञात करना।

(13) छात्रों के शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन के लिए आधार तैयार करना ।

(14) छात्रों का योग्यता-आधारित वर्गीकरण करना। 

(15) छात्रों का विभिन्न दृष्टियों से चयन करना।

(16) कक्षा उन्नति व रोजगार के लिए शैक्षिक योग्यता का प्रमाण-पत्र देना।

(17) शैक्षिक मानकों का निर्धारण करना।

मापन तथा मूल्यांकन के कार्य (Functions of Measurement and Evaluation)

मापन तथा मूल्यांकन के अनेक विभिन्न कार्य हो सकते हैं। मापन तथा मूल्यांकन किस कार्य अथवा उद्देश्य के लिए किया जाता है, इस आधार पर ही उपयुक्त मापन प्रविधियों का निर्धारण किया जा सकता है। कुछ विद्वान् मापन के तीन प्रमुख कार्य साफल्य निर्धारण कार्य, निदानात्मक कार्य तथा पूर्वकथन कार्य बताते हैं। साफल्य निर्धारण कार्य से तात्पर्य मापन प्रक्रिया के द्वारा किसो चर पर व्यक्ति की स्थिति अथवा परिणाम की जानकारी प्राप्त करने से है। शिक्षा के सन्दर्भ में यह कार्य छात्रों द्वारा अर्जित ज्ञान, बोध व कौशल को जानने से सम्बन्धित होता है। निदानात्मक कार्य से तात्पर्य मापन प्रक्रिया के द्वारा छात्रों की कमजोरियों व कठिनाइयों को ज्ञात करने से है। पूर्व कथन कार्य के अन्तर्गत किसी व्यक्ति की वर्तमान स्थिति या योग्यता को जानकार भविष्य की कार्यक्षमता के सम्बन्ध में अनुमान लगाने से है। इन तीन कार्यों के अतिरिक्त मापन के तीन अन्य कार्यों की भी चर्चा की जाती है। ये कार्य-तुलना कार्य, चयन व वर्गीकरण कार्य तथा अनुसन्धान कार्य हैं। मापन प्रक्रिया से प्राप्त परिणाम विभिन्न व्यक्तियों की तुलना करने तथा व्यक्तिगत भिन्नताओं का अध्ययन करने में सहायक होते हैं। मापन तथा मूल्यांकन की सहायता से श्रेष्ठ अथवा निकृष्ट व्यक्तियों को शेष व्यक्तियों से अलग किया जा सकता है। वर्गीकरण हेतु भी मापन प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है। अनुसंधान कार्यों में समंक संकलन हेतु भी मापन की सहायता ली जाती है। निःसन्देह मापन प्रक्रिया इन सभी दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व उपयोगी होती है। माग्न के कार्यों को तीन अन्तर्सम्बन्धित भागों में बाँटा गया है

(1) शैक्षिक कार्य (Educational Functions) - शैक्षिक दृष्टि से मापन व मूल्यांकन प्रक्रिया के द्वारा प्रतिपुष्टि, अभिप्रेरणा व अति अधिगम प्रदान करने के तीन महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हो सकते हैं। मापन तथा मूल्यांकन से प्राप्त परिणाम छात्रों तथा अध्यापक दोनों के लिए ही प्रतिपुष्टि का कार्य करते हैं। छात्र व अध्यापकगण अपनी-अपनी कमियों को जानने के लिए स्वयं का निदान करते हैं तथा उनको दूर करने का प्रयास करते हैं। परीक्षण कार्यक्रम का ज्ञान भी छात्रों को अध्ययन के लिए जागरूक बनाता है। अजित ज्ञान और कौशल को बार-बार दोहराना अति अधिगम कहलाता है। ज्ञान का अधिक समय तक स्मरण रखने में अति अधिगम सहायक कहलाता है। मापन तथा मूल्यांकन की प्रक्रिया छात्रों को अति अधिगम करने के लिए भी गतिशील बनाती है।

(2) प्रशासनिक कार्य (Administrative Functions) - मापन तथा मूल्यांकन के प्रशासनिक कार्यों के अन्तर्गत नियन्त्रण, अनुसन्धान, वर्गीकरण व व्यवस्थापन, चयन, प्रमाण पत्र देना आदि आते हैं। किसी शैक्षिक कार्यक्रम, किसी शिक्षा संस्था अथवा किसी शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता को नियन्त्रित करने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन मापन तथा मूल्यांकन ही है। राष्ट्रीय या क्षेत्रीय मानकों से तुलना करके किसी कार्यक्रम अथवा संस्थान की स्थिति का ठीक ढंग से ज्ञान हो सकता है। विभिन्न प्रकार के शैक्षिक अनुसन्धानों में भी मापन तथा मूल्यांकन की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। अनुसन्धान के लिए आवश्यक समंकों का संकलन भी परीक्षणों की सहायता से ही किया जाता है। बालकों अथवा छात्रों को उनकी योग्यता के आधार पर वर्गीकृत करने तथा उनको विभिन्न कक्षाओं में रखने के लिए भी मापन व मूल्यांकन करने की आवश्यकता होती है। विभिन्न कार्यों अथवा पदों के लिए तथा विद्यालयों में प्रवेश के लिए उचित अभ्यर्थियों के चयन के लिए मापन उपकरणों को प्रयुक्त किया जाता है। छात्रों अथवा व्यक्तियों को उनकी योग्यता के अनुरूप श्रेणी व प्रमाण-पत्र देने के लिए भी मापन उपकरणों का प्रयोग करके उनकी योग्यता को जानना अपरिहार्य होता है।

(3) निर्देशन का कार्य (Guidance Functions) - व्यक्तियों की विशेष अभिरुचियों, योग्यताओं व कमजोरियों को जानकार उन्हें शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन व देने के कार्य में भी मापन तथा मूल्यांकन का उपयोग किया जाता है। उचित निर्देशन व मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए यह आवश्यक होता है कि बालकों की वृद्धि, सम्प्राप्ति, व्यक्तित्व, दृष्टिकोण, रुचि, अभिरुचि, मूल्य आदि का समुचित ज्ञान हो। योग्यता व अभिरुचि के अनुरूप उपयुक्त पाठ्यक्रम अथवा उपयुक्त रोजगार का चयन करने तथा भावी सफलता का पूर्व आकलन करने के लिए छात्रों के सम्बन्ध में आवश्यक सूचनाएँ मापन तथा मूल्यांकन से ही प्राप्त होती हैं।

मूल्यांकन प्रक्रिया के सोपान (Steps of Evaluation Process)

किसी अच्छे मूल्यांकन कार्यक्रम के लिए यह आवश्यक है कि वह छात्रों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों का ठीक ढंग से मूल्यांकन कर सके। विभिन्न विषयों के शिक्षण के भिन्न-भिन्न उद्देश्य होते हैं तथा भिन्न-भिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की अधिगम क्रियाएँ छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत की जाती हैं। इन भिन्न-भिन्न प्रकार की अधिगम क्रियाओं के फलस्वरूप छात्रों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों का मापन सरल नहीं है। मूल्यांकन एक सतत प्रक्रिया है, अत: इसमें अनेक सोपानों या क्रियाओं का होना स्वाभाविक ही है। वास्तव में मूल्यांकन प्रक्रिया के तीन मुख्य सोपान हैं। ये तीन सोपान क्रमश: (1) उद्देश्यों का निर्धारण, (2) अधिगम क्रियाओं का आयोजन तथा (3) मूल्यांकन करना है। परन्तु स्पष्टता व सरलता के लिए इनको कुछ उपसोपानों में बाँटा जा सकता है। उद्देश्य निर्धारण सोपान के अन्तर्गत सामान्य व विशिष्ट उद्देश्यों के निर्धारण तथा परिभाषीकरण की क्रियाएँ सम्मिलित रहती हैं। अधिगम क्रियाओं का आयोजन नामक सोपान में शिक्षण बिन्दुओं का निर्धारण तथा शिक्षण अधिगम क्रियाओं का आयोजन समाहित रहता है, जबकि मूल्यांकन सोपान के अन्तर्गत छात्रों के व्यवहार परिवर्तन का मापन करने, मूल्यांकन करने तथा प्रतिपुष्टि का कार्य आता है। अतः मूल्यांकन प्रक्रिया को निम्नांकित क्रमबद्ध सोपानों में बाँटा जा सकता है

(1) सामान्य उद्देश्य (General Objectives) - शिक्षा एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है। किसी भी शिक्षा संस्था में विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती हैं। प्रत्येक विषय का अपना एक अलग अस्तित्व, महत्त्व तथा आवश्यकता होती है। प्रत्येक विषय को पाठ्यक्रम में रखने का एक निश्चित ध्येय होता है। मूल्यांकन प्रक्रिया का पहला कदम यह ज्ञात करना है कि किस शैक्षिक लक्ष्य का मूल्यांकन करना है। अर्थात् वे कौन से शैक्षिक उद्देश्य हैं, जिनकी प्राप्ति की वांछनीयता को प्राप्त करना है। जब तक शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण नहीं किया जायेग तब तक उन उद्देश्यों की प्राप्ति के सम्बन्ध में कुछ भी कहना सम्भव नहीं हो सकेगा। निःसन्देह शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण एक क्लिष्ट कार्य है। शिक्षण के सामान्य उद्देश्य वास्तव में ऐसे व्यापक तथा अन्तिम लक्ष्य हैं जिनकी प्राप्ति किसी अध्यापक का एक सामान्य तथा दूरगामी लक्ष्य होता है। इनकी प्राप्ति के लिए एक लम्बा समय तथा सम्पूर्ण शिक्षा प्रक्रिया का निरन्तर योगदान आवश्यक होता है। शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों के निर्धारण में निम्नांकित बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है

(i) छात्रों की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास की प्रकृति

(ii) समाज का आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक आधार। 

(iii) पढ़ाई जाने वाली विषयवस्तु की प्रकृति।

(iv) शिक्षा मनोविज्ञान के मूलभूत सिद्धान्त । 

(v) छात्रों की क्षमता व शिक्षा का स्तर निःसन्देह शिक्षा के सामान्य उद्देश्य व्यापक, परोक्ष तथा औपचारिक होते हैं। इनका निर्धारण दार्शनिक, सामाजिक व राजनीतिक चिन्तन पर अधिक आधारित होता है तथा इन्हें लम्बी अवधि में प्राप्त किया जाना अपेक्षित होता है।

(2) विशिष्ट उद्देश्य (Specific Objective)- कोई भी अध्यापक दो-चार दिन के अध्यापन के द्वारा सामान्य उद्देश्यों को प्राप्ति नहीं कर सकता है। दैनिक शिक्षण कार्य करते समय अध्यापक के मस्तिष्क में सदैव ही कुछ तात्कालिक प्राप्त उद्देश्य होते हैं जिनकी प्राप्ति कक्षा शिक्षण के दौरान सम्भव है। जैसे-वृत्त का क्षेत्रफल पढ़ाते समय अध्यापक यह सोचता है कि उसके अध्यापन के उपरान्त छात्र वृत्त का क्षेत्रफल ज्ञात करने का सूत्र बता सकेंगे, छात्र किसी दिये गये वृत्त का क्षेत्रफल ज्ञात कर सकेंगे तथा छात्रवृत्त के क्षेत्रफल से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान कर सकेंगे। शिक्षण के उपरान्त यदि छात्र ऐसा कर पाते हैं, तो अध्यापक अपने शिक्षण कार्य को पूर्ण मानता है। यदि छात्र ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो वह नये सिरे से पुन: शिक्षण कार्य करता है। छात्रों में लाये जाने वाले इन परिवर्तनों के उपरान्त विशिष्ट उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है। ये विशिष्ट उद्देश्य प्रायः छात्रों में रहने वाले सम्भावित व्यवहार परिवर्तन के रूप में लिखे जाते हैं। विशिष्ट उद्देश्यों को अपेक्षा सामान्य उद्देश्य कुछ संकीर्ण प्रत्यक्ष तथा कार्यपरक होते हैं। ये व्यावहारिकता पर आधारित होते हैं तथा अल्प अवधि में इनको प्राप्त किया जा सकता है।

(3) शिक्षण बिन्दु (Teaching Points) - सामान्य उद्देश्यों तथा विशिष्ट उद्देश्यों के निर्धारण के उपरान्त मूल्यांकन प्रक्रिया का तृतीय सोपान आता है। इसके अन्तर्गत उन शिक्षण बिन्दुओं को निर्धारित किया जाता है। जिनके लिए विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है। पाठ्यवस्तु के किसी भी प्रकरण को शिक्षण की सुविधा की दृष्टि से छोटे-छोटे भागों में बाँटा जा सकता है। पाठ्यवस्तु के ये छोटे-छोटे भाग ही शिक्षण बिन्दु कहलाते हैं। प्रत्येक शिक्षण बिन्दु अपने आप में शिक्षण की एक संक्षिप्त परन्तु पूर्ण इकाई होती है। इन शिक्षण बिन्दुओं का निर्धारण अध्यापक के कार्य को अत्यधिक सरल कर देते हैं। इन शिक्षण बिन्दुओं का अनुसरण करके अध्यापक धीरे-धीरे अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। अध्यापक के द्वारा शिक्षण योजना बनाने में भी ये शिक्षण बिन्दु अत्यधिक सहायक होते हैं।

(4) अधिगम क्रियाएँ (Learning Activities)- छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन कुछ अधिगम परिस्थितियों की सहायता से ही लाये जा सकते हैं। ये अधिगम परिस्थितियाँ छात्र एवं शिक्षण उद्देश्यों के बीच के शैक्षिक सम्बन्ध को स्थापित करती हैं तथा इनके परिणामस्वरूप छात्रों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन आते हैं। अतः शिक्षण उद्देश्यों का निर्धारण करने तथा शिक्षण बिन्दुओं का चयन करने के उपरान्त अध्यापक का कार्य वास्तविक रूप से अधिगम क्रियाओं का आयोजन करना है। अधिगम क्रियाएँ अनेक प्रकार से छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत की जा सकती हैं। कक्षा शिक्षण, पुस्तकालय, वाचनालय, पाठ्यपुस्तकों, समाचार साधनों, रेडियो, टेलिीविजन, चलचित्र, प्रयोगशालाओं, भ्रमण आदि की सहायता से छात्रों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाये जा सकते हैं।

(5) व्यवहार परिवर्तन (Behavioural Changes)-अधिगम क्रियाओं के प्रस्तुतीकरण के उपरान्त छात्रों के व्यवहार में होने वाले परितर्वनों को ज्ञात करना होता है। इसके लिए कुछ ऐसे परीक्षणों या अन्य युक्तियों का प्रयोग करना होता है। जो छात्रों में आये अपेक्षित व्यवहार परितर्वन की सीमा का ज्ञान प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रदान कर सकें। छात्रों में आये विभिन्न प्रकार के व्यवहार परिवर्तनों को मापने के लिए विभिन्न प्रकार की मापन युक्तियों का उपयोग किया जाता है। बुद्धि परीक्षण, व्यक्तित्व परीक्षण, सम्प्राप्ति परीक्षण, निदानात्मक परीक्षण, समाजमिति, प्रश्नावली, साक्षात्कार, अवलोकन, प्रयोगात्मक परीक्षा, विद्यालय संचयी अभिलेख आदि विभिन्न युक्तियों का प्रयोग करके छात्रों के व्यवहार में आये परिवर्तनों को ज्ञात किया जाता है।

(6) मूल्यांकन (Evaluation)- छात्रों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों को ज्ञात करने के उपरान्त इन व्यवहार परिवर्तनों को वांछनीयता के सापेक्ष व्याख्या की जाती है। इसके अन्तर्गत छात्रों के व्यवहार में आये परिवर्तनों की तुलना पूर्व में अपेक्षित व्यवहार परितर्वनों से की जाती है। यदि आये हुए व्यवहार परिवर्तन, अपेक्षित व्यवहार परिवर्तनों के काफी निकट होते हैं, तो शिक्षण कार्य को संतोषप्रद कहा जा सकता है, जबकि शत-प्रतिशत छात्रों के व्यवहार में शत-प्रतिशत वांछित परिवर्तन लाना एक असम्भव कार्य होता है। इसलिए व्यवहार परिवर्तनों को प्राप्ति के सम्बन्ध में एक अपेक्षित न्यूनतम स्तर भी निर्धारित किया जाता है। यह न्यूनतम स्तर दो प्रकार का हो सकता है

(1) कक्षा न्यूनतम स्तर (Class Minimal Level) तथा (2) छात्र न्यूनतम स्तर (Student Minimal Level)

कक्षा न्यूनतम स्तर यह बताता है कि कम से कम कितने प्रतिशत छात्रों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन आना चाहिए जबकि छात्र न्यूनतम स्तर बताता है कि प्रत्येक छात्र के व्यवहार में कम से कम परिवर्तन आना चाहिए। जैसे कोई गणित का अध्यापक वृत्त का क्षेत्रफल पढ़ाते समय निर्धारित कर सकता है कि कक्षा से कम से कम 80% छात्र वृत्त के क्षेत्रफल से सम्बन्धित दिये गये प्रश्नों में से कम से कम 90% प्रश्न सही हल कर सकेंगे। स्पष्ट है कि उस उदाहरण में कक्षा न्यूनतम स्तर 80% तथा छात्र न्यूनतम स्तर 90% है। न्यूनतम स्तर निर्धारण करने के उपरान्त अध्यापक अपने छात्रों के परिणामों की तुलना अपेक्षित न्यूनतम स्तरों से करके मूल्यांकन कर सकता है। भिन्न-भिन्न उद्देश्यों या कार्यक्रमों के लिए तथा भिन्न-भिन्न विषयों के लिए न्यूनतम स्तर भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।

नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में भी स्कूल शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर अधिगम के न्यूनतम स्तरों को निर्धारित करने पर जोर दिया है जिससे शिक्षण-अधिगम क्रियाओं के आयोजन तथा छात्र सम्प्राप्ति के मूल्यांकन को उचित दिशा निर्देश मिल सकें। मानव संसाधन विकास मन्त्रालय (MHRD) ने यूनेस्को इन्स्टीट्यूट फार एजुकेशन, हम्बर्ग, जर्मनी के भूतपूर्व निदेशक प्रो. आर. एच. दवे की अध्यक्षता में एक ग्यारह सदस्यीय समिति का गठन जनवरी, 1990 में किया जिसे कक्षा 3 व 4 के लिए न्यूनतम अधिगम स्तर निर्धारित करने तथा व्यापक मूल्यांकन के ढंग को सुझाने का कार्य सौंपा गया था। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में प्राथमिक स्तर की सभी कक्षाओं अर्थात् 1, 2, 3, 4 व 5 के लिए भाषा (मातृभाषा), गणित तथा वातावरणीय अध्ययन विषयों के लिए न्यूनतम अधिगम स्तरों (MLLs) का निर्धारण किया है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) ने इस समिति की रिपोर्ट (Minimum Level of Learning at Primary Stage शीर्षक से) सन् 1991 में प्रकाशित की थी।

प्रतिपुष्टि (Feedback) - मूल्यांकन प्रक्रिया का अन्तिम पद परिणामों को प्रतिपुष्टि के रूप में प्रयोग करना है। यदि मूल्यांकन से ज्ञात होता है कि शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हुई है, तो वह प्राप्त परिणामों के आधार पर अपने शिक्षण कार्य में सुधार करता है। वह उद्देश्यों को नये सिरे से पुनः निर्धारित करता है, शिक्षण बिन्दुओं का चयन करता है, वह उद्देश्यों को नये सिरे से पुनः निर्धारित करता है, शिक्षण बिन्दुओं का चयन करता है, अधिगम क्रियाएँ आयोजित करता है, व्यवहार परिवर्तनों का मापन करता है तथा मूल्यांकन करता है। मूल्यांकन की यह प्रक्रिया चक्रीय क्रम में तब तक चलती रहती है जब तक अपेक्षित उद्देश्यों की पूर्ण रूप से प्राप्ति नहीं हो जाती है। इस प्रकार से मूल्यांकन के परिणाम शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक प्रतिपुष्टि प्रदान करते हैं तथा अंततः प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होते हैं।