शैक्षिक प्रशासन का अर्थ, परिभाषा, सिद्धांत, क्षेत्र, उपयोगिता, उद्देश्य

 शैक्षिक प्रशासन का अर्थ(Meaning of Educational Administration)



मुख्यतः शैक्षिक प्रशासन का अंग्रेजी में अर्थ होता है- एडमिनिस्ट्रेशन' (Administration) । अतः प्रशासन एडमिनिस्ट्रेशन (Administration) मिनिस्टर (Minister)। 'मिनिस्टर' लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका तात्पर्य है दूसरों की सेवा में रत रहने वाला व्यक्ति। इस प्रकार शाब्दिक रूप से 'प्रशासन' का अर्थ हुआ अपने अधीनस्थ लोगों की सेवा में लीन रहना। प्रशासन और प्रबन्ध को प्राय: शिक्षाविद् एक ही अर्थ में प्रयोग करते हैं, जो कि भ्रान्तिपूर्ण है। वास्तव में प्रबन्ध का काम केवल नीति निर्धारण करना होता है, जबकि प्रशासक का कार्य नीतियों व योजनाओं को कार्यरूप में परिणित करना होता है।

शैक्षिक प्रशासन शब्द दो शब्दों के मेल से बना है जिसमें शैक्षिक शब्द से हमारा तात्पर्य शिक्षा से है और प्रशासन शब्द का अर्थ-अधीनस्थ लोगों को सेवा प्रभावशाली ढंग से करने की कला है। अतः शैक्षिक प्रशासन का सम्बन्ध मुख्यत: शिक्षा से ही है। शिक्षा के क्षेत्र में व्यवस्था जिस ढाँचे व तन्त्र को खड़ा करता है शैक्षिक प्रशासन उसे कार्यान्वित करने में सहायक होता है जिससे कि शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्ति अधिकाधिक सम्भव हो सके। शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक प्रशासन को आज केवल शिक्षा की ही व्यवस्था नहीं करना है अपितु शिक्षा के क्षेत्र में योजना बनाना, संगठन पर ध्यान देना, निर्देशन तथा पर्यवेक्षण आदि कार्यों से इसका गहरा सम्बन्ध है। शिक्षा के क्षेत्र में अनेक व्यक्ति अपनी-अपनी निर्धारित भूमिकाओं का निर्वहन करते हैं। शिक्षा के सम्पूर्ण ढाँचे में कौन व्यक्ति कितनी लगन से कार्य कर रहा है, इसका ठीक प्रकार से पर्यवेक्षण करना भी शैक्षिक प्रशासन का कार्य है।

हेनरी फेयोल के अनुसार, "हेनरी फेयोल को प्रशासन प्रक्रिया का पिता कहा जाता है, उसके शब्दों में, प्रशासन की भाँति शैक्षिक प्रशासन पाँच तत्वों नियोजन, संगठन आदेश, समन्वय तथा नियन्त्रण की एक प्रक्रिया है।"

लूथर गुलिक के अनुसार, "इन्होंने शैक्षिक प्रशासन प्रक्रिया का विश्लेषण व्यापक अर्थों में पोस्डकॉर्ब फॉर्मूले द्वारा प्रस्तुत किया। इसकी संरचना में निम्नलिखित सात तत्वों का समावेश होता है जो इसके अर्थ को इन सात प्रशासकीय कार्यों को विवेचित करते हैं।"

इन साइक्लोपीडिया ऑफ एजूकेशनल रिसर्च के अनुसार, "शैक्षिक प्रशासन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा सम्बन्धित व्यक्तियों के प्रयासों का एकीकरण तथा उचित सामग्री का प्रयोग इस प्रकार किया जाता है जिससे मानवीय गुणों का समुचित विकास हो सके।"

बैलफोर ग्राह्य के अनुसार, “शैक्षिक प्रशासन का उद्देश्य कम छात्रों को योग्य शिक्षकों से समुचित शिक्षा प्राप्त करने के योग्य बनाना है ताकि वे अपने राज्य के अन्तर्गत सीमित साधनों द्वारा प्रशिक्षित होकर अधिकाधिक लाभान्वित हो सकें।"

शैक्षिक प्रशासन के आधारभूत सिद्धान्त (Fundamentals of Educational Administration)-

शैक्षिक प्रशासन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित है 

1. व्यक्ति की महत्ता का सिद्धान्त- शिक्षा फाईल केन्द्रित न होकर व्यक्ति केन्द्रित होनी चाहिए, जिसके लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा द्वारा व्यक्तियों के शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, आध्यात्मिक और सौन्दर्यात्मक गुणों का विकास किया जाये। बालक की प्राकृतिक शक्तियों, क्षमताओं, योग्यताओं तथा रुचियों आदि का ज्ञान प्राप्त कर विद्यालयों के पाठ्यक्रमों समय-सारणी, शिक्षण विधियों, शैक्षिक सामग्री, साज-सज्जा, फर्नीचर आदि का प्रबन्ध करने से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास सम्भव है। इसके अतिरिक्त शैक्षिक प्रशासकों की क्षमताओं तथा रुचियों आदि का विकास करने से उनकी भी कार्यकुशलता का विकास होगा।

2. शिक्षा दर्शन पर आधारित- शिक्षा प्रशासन उचित शिक्षा दर्शन पर आधारित होना चाहिए। दर्शन शिक्षा प्रशासन का पथ-प्रदर्शक है तथा उद्देश्यों का निर्धारण करता है, जिसके आधार पर विद्यालय का मार्गदर्शन होता है, जिससे वह उचित वातावरण उपस्थित कर अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सके।

3. प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप सिद्धान्त- शिक्षा का सारा कार्यक्रम तथा योजनाएँ देश के ढाँचे के आधार पर आधारित होती हैं। हमारा समाज जनतांत्रिक है। अतः शैक्षिक प्रशासक को समाज के राजनीतिक ढाँचे के अनुरूप ही अपने उद्देश्यों, कार्यक्रमों, योजनाओं तथा नीतियों को अपनाना चाहिए, तभी योजनाएँ सफल होंगी तथा देश और समाज को लाभ पहुँचेगा और लोगों की आस्था भी उनमें रहेगी। अन्यथा वे सब कोरी कल्पना के समान नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगी। इसलिए समानता और स्वतंत्रता के मूल सिद्धान्तों का पालन करें, जिससे छात्र, अध्यापक तथा प्रशासक अपना कार्य भली प्रकार निभा सकें और समाज के विकास से सम्बन्धित सभी व्यक्तियों के ऊपर उत्तरदायित्व हो, जिससे वे अपने को सम्मानित समझें और कार्य में रुचि लें अन्यथा समाज की प्रगति नहीं हो पायेगी।

4. प्रयासों के समन्वय का सिद्धान्त- विद्यालय का प्रबन्ध इस प्रकार का होना चाहिए कि जितने व्यक्ति विद्यालयों से सम्बन्धित जैसे- प्रबन्धक, प्रधानाचार्य, अध्यापक, कार्यकारिणी के सदस्य, लिपिक तथा छात्र आदि सभी एकजुट होकर समन्वित रूप से विद्यालय के लाभ के लिए प्रयत्न करें, जिससे स्कूल का सर्वांगीण विकास हो सके। अलग-अलग ढंग से काम करने से किसी को भी सफलता न मिलेमी और विद्यालय का अहित होगा और उसका उत्तरदायी कोई एक न होगा, क्योंकि सब प्रयत्न भिन्न-भिन्न होंगे और स्कूल अपने उद्देश्यों को प्राप्ति कभी प्राप्त न कर पायेगा। कहा भी गया है कि "United we Stand divided we fall." 

5. विद्यालयों के उद्देश्यों, नीतियों और कार्यक्रमों में एकरूपता का सिद्धान्त- विद्यालय का प्रशासन इस प्रकार किया जाये कि उसके नीतियों तथा कार्यक्रमों में किसी प्रकार को रुकावट तथा बाधा न उत्पन्न होने पाये। अत: विद्यालय के प्रबन्धक या अधिकारी वर्ग को चाहिए कि वे अपने विद्यालय के लिए जो उद्देश्य तथा आदर्श निश्चित करें उसके प्राप्ति के लिए वे लोग उसी के अनुरूप अपनी क्रियाओं, कार्यों तथा नीतियों का पालन करें, जिससे विद्यालय की उन्नति हो अन्यथा विद्यालय अपने लक्ष्यों तथा आदर्शों की प्राप्ति नहीं कर पायेगा।

6. कार्यक्रम तथा नीतियों के निर्धारण में रचनात्मक तथा आशावादी दृष्टिकोण का सिद्धान्त- विद्यालय के अधिकारी वर्ग जैसे- प्रबन्धक तथा प्रधानाचार्य को अपने कार्यक्रमों, नीतियों तथा योजनाओं में रचनात्मक और आशावादी सिद्धान्त रखना चाहिए, जिससे उनके छात्रों में भी वैसा ही विचार उत्पन्न हो, जिससे समाज और देश का लाभ हो। 

7. परिवर्तनशील आवश्यकताओं के अनुकूलन का सिद्धान्त- परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसलिए शैक्षिक प्रशासन समय के परिवर्तन के साथ शैक्षिक कार्यक्रमों उद्देश्यों, नीतियों तथा योजनाओं आदि को समय के साथ परिवर्तित करता चले। उनमें रूढ़िवादिता न हो अन्यथा न केवल शिक्षा वरन् अन्य क्षेत्रों में भी सम्पूर्ण देश और समाज पिछड़ा रह जायेगा और दूसरे समाज तथा देश की उन्नति करते जायेंगे। इस प्रकार की पुरानी शिक्षा हमारे समाज को नर्क में ढकेल देगी। अतः आवश्यकता और समाज के साथ हमारे शैक्षिक जगत् में भी परिवर्तन होना चाहिए। इसलिए हमारी नीतियाँ बड़ी परिवर्तनशील तथा लचीली होनी चाहिए, जिससे यदि आवश्यकता हो तो स्थिर रखें अन्यथा परिवर्तित किया जा सके।

8. क्षमताओं के अनुसार कार्य विभाजन का सिद्धान्त- प्रजातांत्रिक समाज में सबसे कठिन कार्य क्षमता के अनुसार कार्य विभाजन करना है। यदि इस कार्य को भली प्रकार न किया गया तो वह समाज शिक्षा जगत् में कभी प्रगति नहीं कर सकेगा। अतः शैक्षिक प्रशासक का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य हो जाता है कि वह शिक्षा से सम्बन्धित जैसे- प्रधानाचार्य, शिक्षक तथा प्रबन्धक आदि की क्षमता के अनुसार कार्य विभाजन करे, जिससे वे लोग अपने-अपने कर्त्तव्यों को पूर्णरूप से निभायें और यह तभी सम्भव होगा जबकि कार्य उनकी रुचियों, रुझान, योग्यता, क्षमताओं तथा उनके सम्मान व साथ ही मान-मर्यादा बनाये रखने वाले हों, जिससे किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न हो पाये।

9. सामाजिक तथा राष्ट्रीय हित का सिद्धान्त- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह सामाजिक बंधनों के जाल में फंसा रहता है। बालक अपने सामाजिक वातावरण के मध्य में रहकर अपना सर्वांगीण विकास करता है। इसलिए प्रशासक का यह महान कर्त्तव्य हो जाता है कि वह विद्यालयों का संगठन राष्ट्रीय तथा सामाजिक वातावरण के उद्देश्यों, आदर्शों, क्रियाओं, भागों तथा उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर करे, जिससे समाज और राष्ट्र की उन्नति सम्भव हो सके। उसके दैनिक कार्यक्रमों को भी उन्हीं के अनुसार नियोजित करे। इस सत्य की पुष्टि में कोठारी कमीशन ने अपनी सिफारिश में लिखा है- "शिक्षा में सबसे प्रमुख और आवश्यक सुधार यह है कि उसको परिवर्तित करके व्यक्तियों के जीवन, आवश्यकताओं आकांक्षाओं से इसका सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न किया जाये और इस प्रकार इसको उस सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन का शक्तिशाली साधन बनाया जाये जो राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।"

10. बालक प्रधान शैक्षिक प्रशासन का सिद्धान्त- मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार सारा शैक्षिक ढाँचा बालक प्रधान होता जा रहा है, जिसका अर्थ यह हुआ कि आधुनिक शिक्षा 'फाईल केन्द्रित न होकर 'बाल केन्द्रित' हो गयी है, क्योंकि मनोविज्ञान की सहायता से अब बालक के मानसिक तथा प्राकृतिक शक्तियों का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, जैसे उसकी मूल प्रवृत्तियाँ, बुद्धि-लब्धि (I.Q.), क्षमताओं, रुचियों, योग्यता, स्मृति, कल्पना शक्ति आदि की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं और तब विद्यालयों को पाठ्यक्रम, पाठन-विधि, समय विभाग चक्र, पाठ्य पुस्तकें, शैक्षिक उपकरण, फर्नीचर आदि उसी के अनुसार बनायी जायें जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो, जो कि आज की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है।

11- सम्पूर्ण विद्यालय के विकास का सिद्धान्त- स्कूल के प्रबन्धकों का यह प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए कि विद्यालय का विकास एकांगी न होकर सर्वागीण हो। यदि ऐसा दृष्टिकोण न रखा गया तो विद्यालयों में ईर्ष्यापूर्ण भावना जाग्रत हो जायेगी, जिससे सम्पूर्ण विद्यालय का पतन हो जायेगा और वह अपने उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पायेगा। अत: किसी कार्यक्रम को बनाने में यह ध्यान रखना चाहिए कि स्कूलों का सम्पूर्ण विकास हो ।

12. लचीलापन, स्थिरता तथा अनुकूलता के लिए स्थान- विद्यालयों को ऐसा होना चाहिए कि आवश्यकताओं तथा उद्देश्यों के आधार पर प्रबन्ध तथा कार्यक्रमों में कठोरता न हो वरन् लचीलापन हो, जिससे समय के साथ परिवर्तन किया जा सके तथा ऐसा भी न हो कि उसमें कोई स्थिरता न हो, जब चाहा बदल दिया, वरन् समय की अनुकूलता के साथ परिवर्तनशील होना चाहिए, जिससे स्थानीय तथा राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखा जा सके।

13. प्रचलित दार्शनिक विचारधारा का अनुकरण करने का सिद्धान्त- किसी भी देश की दार्शनिक विचारधारा समय, काल तथा परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। शिक्षा का विकास करने, शिक्षा के निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने तथा उसकी समस्याओं के निराकरण हेतु दार्शनिक विचारों का सहारा लेना उपयोगी सिद्ध होगा। यदि शिक्षा के प्रशासन को भी प्रचलित दार्शनिक विचारधारा के अनुसार ढाल दिया जाये, तो शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया से अधिकाधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

14. शिक्षक-वर्ग की व्यावसायिक उन्नति का सिद्धान्त- विद्यालय की उन्नति अध्यापकों की कार्यकुशलता तथा योग्यता पर निर्भर करती है। अतः शैक्षिक प्रशासन का प्रमुख सिद्धान्त यह होना चाहिए कि अध्यापकों में व्यावसायिक योग्यता बढ़ाने के लिए सभी सुविधाएँ प्रदान की जायें। उनके लिए व्यावसायिक साहित्य का भी प्रबन्ध होना चाहिए तथा रिफ्रेशर कोर्स, सेमिनार, कन्वेशन आदि में भाग लेने के लिए पूरी छूट होनी चाहिए।

15. व्यक्तित्व का विकास- विद्यालयों का उद्देश्य न केवल शिक्षा प्रदान करना है वरन् विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का विकास करना भी है, क्योंकि स्कूल विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास करना चाहता है न कि एकांगी विकास करना। अत: स्कूलों में ऐसी क्रियाओं का संगठन तथा प्रबन्ध करें कि बालक उसमें भाग लेकर सभी पहलुओं का विकास कर सके. क्योंकि विद्यालयों में शिक्षा का सबसे प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का विकास करना हैं।

16. स्वास्थ्य, कुशलता तथा चरित्र निर्माण का सिद्धान्त- सभी विद्यालयों का प्रमुख सिद्धान्त है कि वे विद्यार्थियों का अच्छा स्वास्थ्य सामाजिक तथा व्यावसायिक कुशलता तथा चरित्र निर्माण का प्रबन्ध करें, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। इसके लिए स्कूलों में खेलकूद, पी. टी. (P.T.), शारीरिक व्यायाम, दोपहर का नाश्ता, समय-समय पर डाक्टरी निरीक्षण तथा सफाई का प्रबन्ध हो ।

शैक्षिक प्रशासन के क्षेत्र(Field of educational administration)- 

शैक्षिक प्रशासन का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। शैक्षिक प्रशासन का मुख्य कर्तव्य शिक्षा के सभी अंगों को उचित प्रकार से व्यवस्थित करना तथा उनमें उचित सामंजस्य उत्पन्न करना समझा जाता है। किसी शिक्षा संस्था को उन्नत बनाने में छात्र शिक्षक, अनुशासन आदि का सहयोग महत्वपूर्ण होता है। एक विद्यालय को सर्वश्रेष्ठ बनाने में कितने अंग सहायक होते हैं। शैक्षिक प्रशासन के निम्न क्षेत्र है

(1) विद्यालय की व्यवस्था- विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्था करना और उसके लिए आवश्यक साधनों को इकट्ठा करना शैक्षिक प्रशासन के ही क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। विद्यालय भवन का निर्माण, आवश्यकता, कक्षा भवन, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, क्रीडा क्षेत्र आदि के निर्माण में कार्य प्रशासन को ही करना होता है।

(2) अनुशासन व्यवस्था- शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन का महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि अनुशासन में रहकर कार्य करना अत्यन्त आवश्यक है। शैक्षिक प्रशासन को सफलता भी अनुशासन की उचित व्यवस्था पर आधारित होती है। 

(3) छात्र हित एवं चिन्तन- विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने वाले विभिन्न छात्र-छात्राओं की समस्याएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। प्रतिभाशाली छात्रों के लिए छात्रावृत्ति, निर्धन छात्रों की शुल्क मुक्ति, छात्रावास की सुविधा, पुस्तकीय व्यवस्था आदि अनेक कार्य भी प्रशासन के प्रमुख अंग हैं। 

(4) शिक्षकों की नियुक्ति- विद्यालय में शिक्षकों की नियुक्ति तथा उनके वेतन की व्यवस्था करना, आवास की व्यवस्था करना, उनके हित एवं कल्याण की भी व्यवस्था करना शैक्षिक प्रशासन के क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।

(5) शैक्षिक समस्याओं का निदान- विद्यालय में प्रतिदनि विभिन्न समस्याएँ आती रहती हैं। किसी विद्यालय में राजनीति से प्रेरित होकर शिक्षकों की दलबन्दी भी वातावरण को दूषित कर देती है। अनुभवहीन तथा शिक्षण में रुचि न रखने वाले शिक्षक भी विद्यालय में विभिन्न प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करते हैं। इन सभी समस्याओं का निदान शैक्षिक प्रशासन की कुशलता पर निर्भर करता है। 

(6) नवीन एवं उपयोगी शिक्षण विधियों का चयन- शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने के लिए शैक्षिक प्रशासन के द्वारा शिक्षकों को नवीन एवं उपयोगी शिक्षण विधियों का ज्ञान कराना आवश्यक है।

(7) सहायक सामग्री की व्यवस्था करना- शिक्षण कार्य में सहायता करना तथा इसे प्रभावशालो बनाने के लिए विभिन्न प्रकार की सहायक सामग्री की अत्यन्त आवश्यकता है। विज्ञान, भूगोल, भूगर्भ विज्ञान आदि विषयों में किन वस्तुओं की आवश्यकता होती है। इसका सही अनुमान करना शैक्षिक प्रशासन का दायित्व है।

(8) भौतिक तत्वों का संगठन- विद्यालय के संचालन में वित्त की व्यवस्था करना, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, वाचनालय, खेल का मैदान आदि की व्यवस्था करना शैक्षिक प्रशासन का कार्य है। आर्थिक प्राप्ति के स्रोतों का प्रशासनिक अधिकारियों को स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए। 

(9) निर्देशन एवं कार्यान्वयन- शैक्षिक प्रशासन को निर्देशन कार्य में कुशल होना चाहिए। इन निर्देशनों का उचित प्रकार से पालन करना भी प्रशासक की योग्यता पर निर्भर करता है। 

(10) मानवीय सम्बन्धों की स्थापना करना- शिक्षण संस्थाओं में मानवीय सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए सभी कर्मचारियों में एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति तथा आदर भाव रखना आवश्यक है। कर्मचारियों में परस्पर भेदभाव को दूर करके प्रेमभाव को बढ़ाने में शैक्षिक प्रशासन की सूझबूझ बहुत उपयोगी होती है।

शैक्षिक प्रशासन की उपयोगिता(Usefulness of educational administration)-

शैक्षिक प्रशासन की उपयोगिता सर्वविदित है। अन्य क्षेत्रों में प्रशासन जिस प्रकार क्रियाशील होता है, आज के युग में शिक्षा प्रशासन केवल क्रियान्वयन अभिकरण नहीं है वरन् यह नियोजन अभिकरण है। अतः नियोजन, कार्यान्वयन, मूल्यांकन ये तीनों कार्य शिक्षा प्रशासन को करने पड़ते हैं। इसलिए शैक्षिक प्रशासन की उपयोगिता निम्न है 

(1) मानवीय सम्बन्धों का विकास- शैक्षिक प्रशासन का क्षेत्र मानव सम्बन्धों से है। छात्रों शिक्षकों तथा प्रशासनिक कर्मचारियों द्वारा शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने में शैक्षिक प्रशासन हमेशा क्रियाशील रहता है। कोर्ट तथा रॉस का कथन है कि "शैक्षिक प्रशासन निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु शिक्षकों को साधन बनाकर बालकों का विकास करता है।" यह विकास समाज में स्वस्थ मानव सम्बन्धों के लिए किया जाता है।

(2) प्रयासों का एकीकरण- शैक्षिक प्रशासन शिक्षा सम्बन्धी किये जा रहे प्रयासों को स्वीकार करता है। इस एकोकरण का लक्ष्य समाज में व्यवस्था, एकता, समायोजन तथा सहयोग का निर्माण करना है।

(3) सम्बन्धों की व्यवस्था- शैक्षिक प्रशासन मनुष्य तथा पदार्थों के सम्बन्धों की व्यवस्था, मानव विकास के सन्दर्भ में करता है। डॉ. एस. एन. मुखर्जी के अनुसार, "शैक्षिक प्रशासन वस्तुओं के साथ-साथ मानव सम्बन्धों की व्यवस्था से भी सम्बन्धित है। यह मिल-जुलकर अच्छा कार्य करने पर बल देता है। इसका सम्बन्ध सजीवों से अधिक भौतिक पदार्थों से कम है।" 

(4) शिक्षा को सेवा मानना- शैक्षिक प्रशासन, शिक्षा को सेवा कार्य मानकर चलता है। अतः इसमें लगन तथा मशीनरी भावना प्रमुख होता है। शिक्षा का अन्य कार्यों की अपेक्षा अलग ढंग का कार्य है जिसका उद्देश्य मानव में निहित गुणों का विकास करना है।

(5) शैक्षिक प्रक्रिया को गति देना- शैक्षिक प्रशासन मूल्यांकन प्रक्रिया को गति देता है। यह निम्न हैं

(i) शिक्षा में लक्ष्यों का निर्माण तथा निश्चित सन्दर्भ में मूल्यांकन प्रक्रिया का निर्धारण करना। 

(ii) उपलब्ध सामग्री तथा आँकड़ों की पहचान करना और इनके द्वारा सामग्री एवं आँकड़ों के उपयोग पर विचार करना।

(iii) आँकड़ों को एकत्र करने के लिए विधियों को विकसित करना। परीक्षण, प्रशिक्षण, सर्वेक्षण, निरीक्षण तथा व्याख्या तथा प्रभावशाली उद्देश्य की ओर अग्रसर होना।

(iv) समूह चर्चा तथा अन्य विधियों द्वारा प्राप्त परिणामों की व्याख्या करना। 

(v) परिश्रमों का समन्वय एवं संक्षिप्तीकरण।

(6) समग्रता- शैक्षिक प्रशासन की उपयोगिता इसकी समग्रता में है। शिक्षा टुकड़ों में बाँटकर देखी-परखी जाने वाली प्रक्रिया नहीं है। इसका समान प्रभाव व्यक्ति को किस प्रकार विकसित करना है, शैक्षिक प्रशासन इस विषय में प्रयास करता है। एडम्स के अनुसार, "शिक्षा प्रशासन में एक को अनेक सूत्र में बाँधने की क्षमता होती है। परस्पर विरोधियों तथा सामाजिक शक्तियों को वह इस प्रकार जोड़ता है कि सब एक इकाई के रूप में कार्य करते हैं।" अतः शैक्षिक प्रशासन, शिक्षा की प्रक्रिया के समग्र एवं सफल संचालन की एक अनिवार्य आवश्यकता है जो समाज, व्यक्ति तथा समुदाय के लिए अत्यधिक उपयोगी है। 

शैक्षिक प्रशासन के उद्देश्य(Objectives of Educational Administration)-

शैक्षिक विकास की दृष्टि से शैक्षिक प्रशासन के निम्न उद्देश्य हैं

(1) बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए उचित वातावरण की व्यवस्था- शैक्षिक प्रशासन शिक्षा से सम्बन्धित कार्यों को सम्पन्न कराता है। शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों की सहायता करता है। इन श्रम के साथ-साथ यह बच्चों के लिए ऐसा वातावरण तैयार करता है, जिसमें बालक का सम्पूर्ण विकास सम्भव हो सके।

(2) सही बालकों को उचित शिक्षकों द्वारा उचित शिक्षा प्रदान करना- शैक्षिक प्रशासन का उद्देश्य है कि शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों को उनके उत्तरदायित्व का ज्ञान कराया जाये, बालक के व्यक्तित्व का विकास किय जाये और प्रत्येक व्यक्ति को उसकी क्षमता के अनुरूप कार्य करने का अवसर उपलब्ध कराये जाय। ग्राह्य बैलफोर का मत है कि "शैक्षिक प्रशासन का उद्देश्य सही बालकों को सही शिक्षकों द्वारा राज्य के सीमित साधनों के अन्तर्गत उपलब्ध व्यय से सही शिक्षा लेने योग्य बनाना है जिससे वे बालक शिक्षा प्राप्त करके लाभान्वित हो सकें।"

(3) शिक्षा को उत्पादन का साधन बनाना- शैक्षिक प्रशासन शिक्षा को उत्पादन का साधन बनाने में सहायता करता है। फलस्वरूप किसी संस्था के छात्रों की संख्या में वृद्धि होती है। लेकिन शैक्षिक प्रशासन छात्रों की संख्या में वृद्धि तक ही सीमित नहीं रहता अपितु यह इससे भी आगे बढ़कर छात्रों की योग्यता और गुणात्मकता में वृद्धि करने का प्रयास भी करता है। गुणात्मकता में यह वृद्धि ही वास्तविक उत्पादन है।

(4) शिक्षा को सुनिश्चित योजना प्रदान करना- शैक्षिक प्रशासन शिक्षा को सुनियोजित रूप प्रदान करने में सहायता करता है। यह योजना का निर्माण करता है ताकि शिक्षा समाज के अनुरूप संचालित हो सके। आर्थर बी. मोहिल्मन का कथन है कि "शिक्षा का कार्य निश्चित संगठन अथवा सुनिश्चित योजना विधियों, व्यक्तियों तथा आर्थिक साधनों के माध्यम से चलाना चाहिए।"

(5) शिक्षा की आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा सम्बन्धी नीतियों का निर्धारण करना- शैक्षिक प्रशासन का उद्देश्य है कि वह शिक्षा सम्बन्धी उचित कार्यों, निर्णयों और विचारों को प्रोत्साहित करें और प्रशासन में लगे सभी व्यक्तियों को प्रेरित करे ताकि सभी शिक्षक भयमुक्त होकर छात्रों को ज्ञान प्रदान करें।

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