पाठ्यक्रम अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, प्रकार, सिद्धांत

 पाठ्यक्रम का अर्थ (Meaning of Curriculum)




पाठ्यक्रम शब्द अंग्रेजी के शब्द Curriculum का हिंदी रूपांतरण है Curriculum शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के 'क्यूररे Currere' शब्द से हुई है जिसका अर्थ है 'दौड़ का मैदान' अंग्रेजी में इसका लक्षणिक अर्थ है 'शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थी की प्रगति का क्षेत्र' शिक्षा की तुलना एक दौड़ से की जाती है और पाठ्यक्रम की दौड़ के मैदान से जिसमें दौड़कर विद्यार्थी अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचता है दूसरे शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि पाठ्यक्रम वह मार्ग है जिसका अनुसरण करके विद्यार्थी शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्त करता है तथा यह पाठों का ऐसा क्रम है जिसके माध्यम से विद्यार्थियों को ज्ञान दिया जाता है या वह स्वयं उसकी क्रम में ज्ञान प्राप्त करता है








पाठ्यक्रम की परिभाषा (Definition of Curriculum)


क्रो तथा क्रो अनुसार– पाठ्यक्रम में सीखने वाले या बालक के वे सभी अनुभव निहित हैं जिन्हें वह विद्यालय या उसके बाहर प्राप्त करता है यह समस्त अनुभव एक कार्यक्रम में निहित किए जाते हैं जो उनको मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक रूप से विकसित होने में सहायता देते हैं देता है

वाटर सी. के अनुसार– पाठ्यक्रम में वे समस्त अनुभव सम्मिलित हैं जिनको बालक विद्यालय के निर्देशन में प्राप्त करते हैं इसके अंतर्गत कक्षा-कक्ष की क्रियाएं तथा उसके बाहर के समस्त कार्य एवं खेल सम्मिलित हैं

कनिंघम– पाठ्यक्रम कलाकार (अध्यापक) के हाथ में एक साधन है जिससे कि वह पदार्थ (शिष्य) को अपने आदर्श (उद्देश्य) के अनुसार अपनी चित्रशाला (विद्यालय) में चित्रित कर सके

मुनरो के अनुसार– पाठ्यक्रम के अंतर्गत वे समस्त अनुभव आते हैं जिन्हें शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षालय प्रयोग में लाता है

फ्रॉबेल के अनुसार– पाठ्यक्रम को मनुष्य जाति के संपूर्ण ज्ञान और अनुभव का सार समझना चाहिए

टी. पर्सीनन के अनुसार– पाठ्यक्रम से तात्पर्य है क्रियाओं के वे विभिन्न स्वरूप जिनके द्वारा मानव आत्मा की भव्य अभिव्यक्ति होती है तथा जिनका इस व्यापक विश्व के लिए सर्वाधिक एवं स्थायी महत्व है।

 पाठ्यक्रम के उद्देश्य (Aims of curriculum)


1.चरित्र– बालकों में समृद्धि उपयोगी एवं नैतिक जीवन के लिए नीव डालना जिससे वह समाज कल्याण के लिए कार्य कर सकें

2.स्वास्थ्य– हष्ट पुष्ट बालकों का निर्माण करना तथा उपयुक्त मानसिक एवं संवेगात्मक दृष्टिकोण एवं आदतों का विकास करना

3.राष्ट्रीय विरासत– बालको को अपनी राष्ट्रीय विरासत को समझने एवं उनमें निष्ठा रखने के योग्य बनाना। इसके साथ ही व्यक्ति की प्रतिष्ठा के लिए भाव उत्पन्न करना

4.स्पष्ट चिंतन एवं पर्यवेक्षण– बालकों में उपयुक्त परिकल्पनाओं पर आधारित विवेक शक्ति का विकास करना जिससे वे सत्य एवं असत्य को पहचान सके इसके अतिरिक्त बालों में खोज करने के लिए रुचि एवं योग्यता का विकास करना

5.ज्ञान एवं कुशलता– बालकों में योग्यता अनुसार ज्ञान एवं विभिन्न कौशलों का विकास करना

6.सौन्दर्यानुभूति एवं अभिव्यक्ति– बालकों में सौंदर्य के उपयोग के लिए सौन्दर्यानुभूति तथा सृजनात्मक अभिव्यक्ति का विकास करना

7.नागरिकता– भारतीय जनतंत्र के लिए निष्ठा एवं गर्व की भावना उत्पन्न करना इसके अतिरिक्त उनको नागरिक अधिकारों एवं दायित्वों से अवगत कराना परंतु यह नागरिकता केवल अपने तक ही सीमित नहीं होगी वरन क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय सदभाव का विकास कर करना होगा

8.सामाजिक एवं आर्थिक संबंध– बालकों में उपयुक्त सामाजिक दृष्टिकोण एवं संबंधों का विकास करना जिससे वे परिवार विद्यालय तथा समाज में उपयुक्त ढंग से जीवन व्यतीत कर सकें इसके अतिरिक्त में व्यवसायिक कुशलता की वृद्धि करना और उनको मानव समाज के अतिरिक्त संबंधों की जानकारी प्रदान करना।






शिक्षा की प्रक्रिया में पाठ्यक्रम का महत्व और आवश्यकता (Importance of curriculum in the process of education)

1.शिक्षा की प्रक्रिया व्यवस्थित होती है– पाठ्यक्रम एक ऐसा लिखा चुका है जिसमें यह स्पष्ट किया जाता है कि शिक्षा के किस स्तर पर विद्यालयों में किन पाठ्य विषयों का कितना ज्ञान और किन प्रक्रियाओं में कितनी दक्षता का विकास किया जाएगा

2.समय और शक्ति का सदुपयोग होता है– निश्चित पाठ्यक्रम अध्यापक और विद्यार्थी दोनों के कार्य निश्चित कर देती है इससे अध्यापकों को यह पता रहता है कि उन्हें विद्यार्थियों को क्या सीखने में सहायता करनी है और विद्यार्थियों को पता रहता है कि उन्हें क्या सीखना है अध्यापक व विद्यार्थी किसी को भी भटकने की गुंजाइश नहीं रहती

3.बच्चों की मनोवैज्ञानिक आवश्यताओ की पूर्ति– मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो सप्रयोजन प्रक्रिया में रुचि लेता है और ऐसा कार्य करना चाहता है जिससे उसकी वर्तमान आवश्यताओ की पूर्ति होती है और भावी आवश्यकता की पूर्ति की संभावना बढ़ती है पाठ्यक्रम का निर्माण इन तीनों बातों को ध्यान में रखकर किया जाता है इसीलिए बच्चे उसे पूरा करने में रुचि दिखाते हैं

4.पाठ्य वस्तुओं का निर्माण संभव होता है– किसी स्तर की निश्चित पाठ्यक्रम में उस स्तर पर पढ़ाए जाने वाले विषयों की सामग्री भी निश्चित होती है इसके आधार पर लेखक पाठ्य  पुस्तके तैयार करते हैं और उनमें आवश्यक सामग्री को ही स्थान देते हैं

5.शिक्षा का स्तर समान रहता है– निश्चित पाठ्यक्रम से पूरे समाज की शिक्षा का स्तर समान रहता है उसके परिणामों से हमें शिक्षा में सुधार की सही दिशा प्राप्त होती है अनिश्चित पाठ्यक्रम की स्थिति में हम शिक्षा स्तर के उठने अथवा गिरने के कारणों का पता नहीं लगा सकते और उस स्थिति में शिक्षा में सुधार नहीं किया जा सकता

6.मूल्यांकन संभव सरल होता है– स्तर विशेष के लिए पाठ्यक्रम निश्चित होने से स्तर विशेष के विद्यार्थियों की योग्यता का मूल्यांकन करना संभव है यदि किसी स्तर के लिए कोई पाठ्यक्रम नहीं होगा तो अध्यापक बच्चों की योग्यता का मूल्यांकन कैसे कर सकेंगे अध्यापक किसी स्तर विशेष के बच्चों की योग्यता का मूल्यांकन इसी पाठ्यक्रम के आधार पर ही करते हैं

7.उद्देश्यों की प्राप्ति संभव होती है– हम जानते हैं कि शिक्षा के किसी भी स्तर की पाठ्यक्रम का निर्माण कुछ निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है अब यदि हम इसे सुचारू रूप से पूरा करते हैं तो शिक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति होती है अन्यथा नहीं इस संदर्भ में हमें यह बात जान लेनी चाहिए कि जब हम यह अनुभव करते हैं कि कोई निश्चित पाठ्यक्रम उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक नहीं हो रहा है तो हम उस में परिवर्तन करते हैं

पाठ्यक्रम के आधार (Bases Of curriculum)


1.दार्शनिक आधार– पाठ्यक्रम का एक मुख्य आधार दर्शन है पाठ्यक्रम का निर्माण शिक्षा के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किया जाता है शिक्षा के उद्देश्य हमें दर्शन से प्राप्त होते हैं अतः पाठ्यक्रम की समस्या एक दार्शनिक समस्या है विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के अनुसार पाठ्यक्रम विभिन्न रूप से निर्धारित किया जाता है

(i)आदर्शवाद– यह विचारधारा शाश्वत मूल्यों एवं आदर्शों पर बल देती है इसीलिए इस पाठ्यक्रम का मुख्य आधार– मानव के विचारों एवं आदर्शों को मानता है आदर्शवाद इसी कारण पाठ्यक्रम में साहित्य, कला, संगीत, इतिहास, भाषा आदि को प्रमुख स्थान प्रदान करता है

(ii)प्रकृतिवाद– यह विचारधारा बालक की वैयक्तिकता पर बल देती है इसके अनुसार बालक की वैयक्तिकता के स्वतंत्र विकास को शिक्षा का ध्येय माना गया है इस कारण प्रकृति वादी बालक को आत्मप्रकाशन के लिए अनियंत्रित स्वतंत्रता देनी के समर्थक हैं इसीलिए प्रकृतिवादी पाठ्यक्रम में उन क्रियाओं का समावेश चाहते हैं जिनके द्वारा बालक की संभावित प्रवृत्तियों का विकास हो सके अतः प्रकृतिवाद पाठ्यक्रम में व्यायाम, खेलकूद, तैरना, भूगोल, प्राकृतिक विज्ञान आदि को महत्व दिया गया है

(iii)प्रयोजनवाद–  यह विचारधारा भी बालक को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है यह विचारधारा बालक को शिक्षा का केंद्र बिंदु मानने के साथ-साथ उपयोगिता सिद्धांत के आधार पर भी बल देती है प्रयोगवादी पाठ्यक्रम का निर्माण बालक की अभिरुचियों के अनुसार कहते हैं यह जिज्ञासु, रचनात्मक, अभिरुचि, कलात्मक अभिव्यक्ति की रूचि तथा विचारों के आदान-प्रदान की रूचि के आधार पर प्रारंभिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम का निर्माण करते हैं साथ ही वे उपयोगिता के सिद्धांत को भी आधार बनाते हैं जिससे जिससे बालक अपने भावी जीवन में सफलता पूर्वक व्यवस्थित हो सके इसी कारण वे पाठ्यक्रम में कला, भाषा, गणित, कताई बुनाई, दुकानदारी, सामाजिक क्रियाओं, व्यवसायों आदि को स्थान देते हैं

(iv)यथार्थवाद– यह विचारधारा पाठ्यक्रम के लिए महत्वपूर्ण आधार प्रदान करती है इसके द्वारा जीवन की व्यवहारिकता पर बल दिया जाता है यथार्थवाद पाठ्यक्रम में उन प्रक्रियाओं को स्थान प्रदान करता है जिनके द्वारा जीवन की वास्तविक परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त हो सके

2.सामाजिक आधार– इस आधार के अनुसार पाठ्यक्रम में उन विषयों एवं क्रियाओं को स्थान प्रदान किया जाता है जो छात्र में सामाजिकता की भावना का विकास करने में सहायता प्रदान करती हैं इस दृष्टि से पाठ्यक्रम में भाषा, इतिहास, साहित्य, समाजशास्त्र, भूगोल, नीतिशास्त्र आदि को स्थान प्रदान किया जाता है

3.मनोवैज्ञानिक आधार– इस आधार के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण बालक की रुचियों, स्वाभाविक प्रवृत्तियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं, योग्यताओं आदि के अनुसार होता है दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि यह बालक को केंद्र मानकर पाठ्यक्रम निर्धारित करता है

4.वैज्ञानिक आधार– विज्ञान की चतुर्मुखी प्रगति ने शिक्षा के पाठ्यक्रम के निर्माण के लिए एक और आधार प्रदान किया है इस आधार के अनुसार पाठ्यक्रम में वैज्ञानिक विषयों को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इस आधार ने शिक्षा को विज्ञान केंद्रित पाठ्यक्रम प्रदान किया है






पाठ्यक्रम निर्माण के आधारभूत सिद्धांत (Fundamental Priciple of Curriculum Costruction)


1.उपयोगिता के सिद्धांत– टी. पर्सी नन के अनुसार पाठ्यक्रम निर्माण का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धांत उसकी उपयोगिता का है पाठ्यक्रम में यथासंभव जीवन के लिए उपयोगी विषयों का समावेश किया जाए जीवन के लिए उपयोगी विषय आकर्षक होते हैं और शिक्षा के महत्व को बढ़ाते हैं जो पाठ्यक्रम बालक एवं समाज के जीवन को कोई लाभ नहीं पहुंचाता वह व्यर्थ है

2.प्रगतिशील एवं अग्रदर्शी सिद्धांत– पहले सिद्धांत पर विचार करते हुए यह कहा जाता था कि समाज की वर्तमान तथा भविष्य संबंधी आवश्यकताओं का पूर्ण ध्यान रखा जाना चाहिए आज के बच्चे कल के आदर्श नागरिक हैं अतः उनका शिक्षण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वे प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति बन सकें शिक्षा उन्हें इस प्रकार के विचार, ज्ञान तथा दृढ़ इच्छा शक्ति प्रदान करें, जिसके द्वारा वह अपने वातावरण को अपने अनुकूल बना लें तथा वातावरण से तालमेल स्थापित कर लें।

3.रुचि, रुझान, योग्यता एवं क्षमता का सिद्धांत– किसी भी स्तर की शिक्षा का पाठ्यक्रम निर्माण करते समय उस स्तर के बच्चों की रुचि रुझान योग्यता एवं क्षमता को भी ध्यान में रखना चाहिए उदाहरणार्थ प्राथमिक शिक्षा स्तर पर पूर्व बाल्यावस्था के बालक पढ़ते हैं उच्च प्राथमिक स्तर पर उत्तर बाल्यावस्था के बालक पढ़ते हैं और माध्यमिक स्तर पर किशोरावस्था के किशोर पढ़ते हैं और इनकी रुचियां एवं क्षमता में बड़ी भिन्नता होती है क्षमता से यहां तात्पर्य उनकी शारीरिक, मानसिक दोनों प्रकार की क्षमताओं से होता है उन्हें इन स्तर के बच्चों के लिए पाठ्य सामग्री एवं क्रियाओं का चयन करते समय इनकी रुचियों एवं क्षमताओं का विशेष ध्यान रखना चाहिए

4.क्रियाशीलता का सिद्धांत– पाठ्यक्रम का चयन क्रियाओं तथा अनुभव के आधार पर होना चाहिए पाठ्यक्रम शारीरिक मानसिक क्रियाशीलता के अवसर अवश्य प्रदान करें क्रियाशीलता पाठ्यक्रम का केंद्र बिंदु होना चाहिए

6.बालक केंद्रित पाठ्यक्रम– यह सत्य है कि बच्चों को जीवन के लिए तैयार होना है परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि इसकी वर्तमान आवश्यकताओं का अनिश्चित भविष्य के लिए बलिदान कर दिया जाए इसीलिए पाठ्यक्रम बाल केंद्रित होना चाहिए

7.लचीलापन का सिद्धांत– पाठ्यक्रम कठोर ना होकर लचीला होना चाहिए उसमें उपस्थित समय अथवा आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन की गुंजाइश होनी चाहिए लचीले पाठ्यक्रम द्वारा ही बालकों के वैयक्तिक भेदों का उपयोग संभव है शिक्षकों को पाठ्यक्रम में आवश्यकतानुसार सुधार या परिवर्तन करने का अधिकार होना चाहिए

8.सहसंबंध का सिद्धांत– पाठ्यक्रम में रखे जाने वाले विषय एक दूसरे से संबंधित होने चाहिए सब विषय ज्ञान के अभिन्न अंग है और उनके पारस्परिक संबंधों को ध्यान में न रखना ज्ञान के प्राकृतिक तत्व को नष्ट करना है

9.खाली समय के उचित प्रयोग का सिद्धांत– पाठ्यक्रम बच्चों को खाली समय के सदुपयोग की भी शिक्षा देने वाला हो हरबर्ट स्पेंसर ने संगीत, साहित्य, संगीत तथा कला की शिक्षा पर बल दिया है

10.सर्वांगीण विकास का सिद्धांत– विद्यार्थियों के लिए हर प्रकार का ज्ञान जुटाने की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि वे अपना शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक, नैतिक, संवेगात्मक तथा आध्यात्मिक विकास कर सकें।

पाठ्यक्रम के प्रकार (Types Of Curriculum)


1.विषय केंद्रित पाठ्यक्रम– इस प्रकार के पाठ्यक्रम में विषय को आधार मानकर पाठ्यक्रम को नियोजित किया जाता है विषय केंद्रित पाठ्यक्रम का सूत्रपात प्राचीन ग्रीक एवं रोम के विद्यालयों में हुआ यह पाठ्यक्रम निश्चित बौद्धिक विशेषताओं की एक सूची है जिसका योग यथार्थता का समग्र चित्र प्रस्तुत करने का दावा करता है इसमें निर्धारित विषय वस्तु पर अधिकार प्राप्त करने पर बल दिया जाता है

2.बाल केंद्रित पाठ्यक्रम– आधुनिक युग में सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि विषय केंद्रित शिक्षा का स्थान बाल केंद्रित शिक्षा ने ले लिया है अब पाठ्यक्रम का आयोजन बालक को केंद्र बनाकर किया जाने लगा है यह पाठ्यक्रम प्रयोगवादी विचारधारा पर आधारित है इस कारण पाठ्यक्रम में पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम को आधार न बनाकर छात्र की रुचियों एवं आवश्यकताओं को केंद्र बनाया जाता है इस प्रकार के पाठ्यक्रम में छात्र की परिवर्तित आवश्यताओ, अभिप्रायों, संवेग आदि को आधार बनाया जाता है

3.क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम– क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम कार्य या क्रिया के आधार पर बनाया जाता है इसके अनुसार अनुभव, ज्ञान या सीखना क्रिया के परिणाम है इसी कारण उसके इस पाठ्यक्रम को 'अनुभव प्रधान' पाठ्यक्रम के नाम से पुकारा जाता है

4.कोर पाठ्यक्रम– कोर पाठ्यक्रम विषय केंद्रित पाठ्यक्रम और बाल केंद्रित पाठ्यक्रम के विरुद्ध प्रक्रिया के फल स्वरुप विकसित हुआ इसका प्रचलन अमेरिका के विद्यालयों में बहुत अधिक है इसका प्रमुख कारण आधुनिक युग की सामाजिक व्यवस्था है यह पाठ्यक्रम इस बात पर बल देता है कि विद्यालय अधिक सामाजिक दायित्वों को ग्रहण करें और सामाजिक रूप से कुशल व्यक्तियों का निर्माण करें यह पाठ्यक्रम छात्रों के सामान्य विकास पर केंद्रित है तथा छात्रों के व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्याओं में निहित होता है 

7.एकीकृत पाठ्यक्रम– इसे सह-संबंधित पाठ्यक्रम भी कहते हैं इसमें सभी विषयों को एक साथ किया जाता है और एक इकाई के रूप में शिक्षा दी जाती है यहां पूर्णाकृति मनोविज्ञान पर आधारित है परंतु एकीकृत करना कठिन काम है

8.विभिननिकृत पाठ्यक्रम– इसका तात्पर्य विभिन्न प्रकार के विषयों को एकत्र करना तथा विशिष्ट विषयों का ज्ञान अलग-अलग देना आज के विशेषीकरण के युग में ऐसी पाठ्यचर्या की मांग की जाती है

9.अनुभव केंद्रित पाठ्यक्रम– यह पाठ्यक्रम जीवन एवं मानव जाति के समस्त अनुभवों को शामिल करती है इसमें वास्तविक बोध होता है और अधिकतम सफलता मिलती है यह दृष्टिकोण मुदालियर आयोग ने भी अपनाया है


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