ब्लूम के उद्देश्य

ब्लूम के उद्देश्य (Bloom's taxonomy)





डॉ. बी. एस. ब्लूम द्वारा प्रतिपादित शिक्षण उद्देश्य को तीन भागों में विभाजित किया गया है

  1. संज्ञानात्मक ज्ञानात्मक प्राप्य उद्देश्य 
  2. भावनात्मक प्राप्य उद्देश्य क्रियात्मक या मनोक्रियात्मक या 
  3. मनोशारीरिक प्राप्त उद्देश्य











ज्ञानात्मक पक्ष


1. ज्ञान- यह संज्ञानात्मक पक्ष का सबसे निम्न स्तर है इसमें छात्र के स्मरण तथा पुनः पहचान के तथ्यों, शब्दों, नियमों तथा सिद्धांतों से विकास किया जाता है इसमें मुख्यतः मनोवैज्ञानिक रूप से स्मृति या याद करने पर जोर दिया जाता है ज्ञान का यह स्तर संज्ञानात्मक के अन्य पांच वर्गों से बिल्कुल अलग है क्योंकि उनमें समस्या का समाधान, सामान्यीकरण आदि किया जाता है जबकि इसमें ऐसा कुछ नहीं किया जाता

2.बोध- यह संज्ञानात्मक उद्देश्यों की अगली सीढ़ी है यह ज्ञान से एक कदम आगे अर्थात ज्ञान को समझना या ज्ञान का बोध है इस अवस्था में विद्यार्थी प्राप्त ज्ञान का अथार्त अब तक जो ज्ञान उसने प्राप्त किया है उसका अपने शब्दों में अनुवाद करते हैं व्याख्या करते हैं तथा उल्लेख करते हैं यदि विद्यार्थी इन बातों को सफलतापूर्वक कर लेते हैं तो इस उद्देश्य की प्राप्ति हो जाती है

3.प्रयोग- इसमें विद्यार्थी तथ्यों व सिद्धांतों के प्राप्त ज्ञान को दैनिक जीवन में प्रयोग करते हैं अर्थात वह इस ज्ञान का प्रयोग अपनी समस्याओं के समाधान में करता है जैसे- लोहे का कोई ठोस टुकड़ा पानी में डूब जाता है पर पानी में जहाज नहीं डूबता

4.विश्लेषण- इसमें छात्र से अपेक्षा की जाती है कि वह प्राप्त सूचना के आधार पर समस्या के विभिन्न भागों में संबंध स्थापित करें इसमें प्रमुखता तीन क्रियाएं आती हैं

I.तत्वों का विश्लेषण
II.संबंधों का विश्लेषण
III.संगठनात्मक क्रमबद्ध व्यवस्था सिद्धांतों का विश्लेषण

5.संश्लेषण- इसमें एकीकरण पर बल देते हुए छात्र की सूझबूझ व सृजनशीलता को विकसित करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है इसमें किन्हीं दो तत्वों को साथ रखने तथा किसी प्रत्यय सिद्धांत के भागों को संयुक्त कर एक संपूर्ण रूप में व्यवस्थित करने की योग्यता आती है

6.मूल्यांकन- यह उच्च स्तर का उद्देश्य है इसमें तथ्य, सिद्धांत नियम, विचार, कार्य, विधि तथा सामग्री के संबंध में आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैं उनके संबंध में निर्णय लेने में आंतरिक और बाह्य मानदंडों को प्रयुक्त किया जाता है कि शिक्षण में शिक्षण के उद्देश्य प्राप्त हुए या नहीं हुए, यदि हुए तो किस सीमा तक। कक्षा में सीखने के जो अनुभव उत्पन्न किए गए वे प्रभावशाली रहे या नहीं तथा उद्देश्यों को कितने अच्छे ढंग से प्राप्त किया गया।






भावात्मक पक्ष


इस पक्ष का वर्गीकरण बी. एस. ब्लूम, डी. आर. कैथवोल तथा बी. बी. मसीआ ने 1964 में किया इस पक्ष का संबंध रुचियों, अभिवृत्तियों तथा मूल्यों के विकास से होता है रुचि किसी कार्य में लगने रहने की मनोवृत्ति है अभिवृत्ति किसी वस्तु, परिस्थिति या व्यक्ति के प्रति सोच/व्यवहार प्रदर्शित करती है शिक्षक इन सब का महत्व तो जानते हैं किंतु बहुत कम इस पर ध्यान केंद्रित करते हैं साथ ही इस क्षेत्र का मूल्यांकन करने में भी कठिनाई होती है क्योंकि परिवर्तन होता रहता है कई बार छात्र बनावटी व्यवहार कर सकता है जिससे उसका मूल्यांकन सही तरह से कर पाना कठिन हो जाता है ब्लूम ने इस पक्ष को 6 वर्गों में बांटा है

1.ग्रहण करना- निम्नस्तर का सीधा संबंध विद्यार्थी की किसी उद्दीपन के प्रति संवेदनशीलता से होता है इसमें छात्र की उद्दीपन को ग्रहण करने की इच्छा को देखा जाता है साथ ही उसके ध्यान को आकर्षित किया जाता है उसे जागरूक बनाया जाता है कि वह कक्षा में शिक्षक की बातों को ध्यान पूर्वक सुने और उन्हें समझ सके वास्तव में यह स्तर छात्र को अधिगम के लिए तैयार करता है

2.अनुक्रिया- इसमें विद्यार्थी प्रेरित होकर सक्रिय रुप से ध्यान लगाकर शिक्षा ग्रहण करते हैं विद्यार्थी सुनने के साथ-साथ उस पर अमल भी करता है। किसी वस्तु या विचार के प्रति रुचि को व्यक्त करता है  जिससे छात्र अनुक्रिया कहते है

3.अनुमूल्यन- इस स्तर पर विद्यार्थी किसी आदर्श, मूल्य, वस्तु-रुचि या घटना से अपने को जोड़ लेता है इस उद्देश्य द्वारा बालक दृष्टिकोण को विकसित करता है जैसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण में अंधविश्वास से मुक्ति या अन्य बातों को यदि प्रायोगिक जांच कर सिद्ध किया जाए तो वह बालक में वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करने में सहायक होंगी

4.अवधारणा- जहाँ एक से अधिक उपयुक्त मूल्य हो उस समय बालक उन पर विचार करता है कि इनमें से कौन से मूल्यों को वह धारण करें यह संज्ञानात्मक विश्लेषण के समान है इसमें निम्न क्रियाएं आती हैं

विचार विमर्श करना
सैद्धांतिकता पर विचार करना
तुलना करना
अवधारणा आदि

5.व्यवस्थापन या संगठन- यह संश्लेषण के समान है इसमें छात्र को एक से अधिक मूल्य मिलते हैं तो उन मूल्यों को क्रमानुसार व्यवस्थित करते हैं इसमें मूल्यों के संगठन पर अधिक ध्यान देते हैं

6.चरित्रीकरण- इस स्तर पर शिक्षक छात्रों कें विशेष मूल्यों या मूल्य समूह के विशेषीकरण का ज्ञान सरलतापूर्वक कर सकता है इस समय छात्र द्वारा संगठित विचार, मूल्य और दृष्टिकोण का जो निर्माण होता है वह उसके भावी जीवन के दर्शन का आधार बन जाता है







 मनो-क्रियात्मक पक्ष या क्रियात्मक पक्ष


इस पक्ष में मस्तिष्क व देह के समन्वय पर जोर दिया जाता है यह शरीर के विभिन्न अंगों के संगठित होकर कार्य करने की अवधारणा पर कार्य करता है इसमें विभिन्न शारीरिक व तंत्रिका तंत्र का समन्वय भी शामिल है इस समन्वय के बिना कोई भी कौशल प्राप्त करना संभव नहीं है इस पक्ष में अधिगम शारीरिक कौशल पर अपने स्वामित्व को बताता है जैसे- कलम को पकड़ना, गिटार बजाना या कोई और मशीनी उपकरणों को चलाना आदि

1.उद्दीपन या अनुकरण- यह निम्नस्तर है जब विद्यार्थी किसी क्रिया का निरीक्षण करता है तो वह आंतरिक बल के कारण उस उद्दीपन के प्रति की जाने वाली क्रिया का अनुकरण करना प्रारंभ कर देता है इसके पश्चात कार्य में कुशलता उसे बार-बार दोहराने से आती है इसे उसके अनुकरण करने की यह अवस्था कौशल विकसित करने की ओर बढ़ाया गया पहला कदम है

2.कार्य करना- इस स्तर में विद्यार्थी उसे दिए गए निर्देशों का पालन करते हुए अपनी क्रिया में सुधार करने का प्रयास करता है वह एक क्रिया की दूसरी क्रिया से तुलना करने लगता है तथा उसमें से आवश्यक वह सही क्रिया का चयन करने की योग्यता अर्जित करता है धीरे-धीरे निरंतर अभ्यास के द्वारा वह सही क्रिया की ओर अग्रसर हो जाता है इसके लिए चेतना का होना आवश्यक है

3.नियंत्रण- इस समय में कार्यक्षमता उच्च स्तर पर पहुंची जाती है किसी कार्य को शुद्धता से पुनः करने के योग्य बनाया जाता है विद्यार्थियों का क्रिया पर पूर्ण नियंत्रण होता है वह कार्य की गति में धीमापन तथा तीव्रता, कार्य की आवश्यकता के अनुरूप उसमें भिन्नता लाने के योग्य होते हैं इस स्तर पर प्रदर्शन, आत्मविश्वास तथा चेतना की जागृत अवस्था द्वारा होता है इसमें मुख्य दो क्रियाएं आती हैं शुद्धता, पुनर्निर्माण।

4.समायोजन- इसमें विद्यार्थी विभिन्न क्रियाओं को क्रमबद्ध तरीके से तथा केवल क्रिया के लिए आवश्यक कार्यों को करता है अर्थात् क्रियाओं का समन्वय करने का प्रयास करता है इसमें मुख्यतः क्रमबद्धता, संगति दो क्रियाएं आती है

5.स्वाभाविकरण- यह इस पक्ष का उच्च स्तर हैं यह किसी एक क्रिया या क्रियाओं की श्रंखला को स्वाभाविक रूप से करने के योग्य बनाती है इस स्तर पर निष्पादन तथा कार्य करने की क्षमता में वृद्धि हो जाती है तथा कम शारीरिक उर्जा के व्यय से ही वह कार्य करना आरंभ करता है इसमें विद्यार्थी क्रिया अपने आप करना आरंभ कर देता है अर्थात् वह अचेत अवस्था में ही वह कार्य कर लेता है उसके कार्य करने की एक शैली बन जाती है

6.आदत या कौशल निर्माण- इस उच्चतम स्तर पर आने पर विद्यार्थी अपने आप तथा अपनी इच्छा के अनुरूप कार्य को करता है विद्यार्थी की स्वयं की शैली उसकी आदत बन चुकी होती हैं।

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